अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 22
सूक्त - भृगुः
देवता - मृत्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
इ॒मे जी॒वा वि मृ॒तैराव॑वृत्र॒न्नभू॑द्भ॒द्रा दे॒वहू॑तिर्नो अ॒द्य। प्राञ्चो॑ अगाम नृ॒तये॒ हसा॑य सु॒वीरा॑सो वि॒दथ॒मा व॑देम ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मे । जी॒वा: । वि । मृ॒तै: । आ । अ॒व॒वृ॒त्र॒न् । अभू॑त् । भ॒द्रा । दे॒वऽहू॑ति: । न॒: । अ॒द्य । प्राञ्च॑: । अ॒गा॒म॒ । नृ॒तये॑ । हसा॑य । सु॒ऽवीरा॑स: । वि॒दथ॑म् । आ । व॒दे॒म॒ ॥२.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
इमे जीवा वि मृतैराववृत्रन्नभूद्भद्रा देवहूतिर्नो अद्य। प्राञ्चो अगाम नृतये हसाय सुवीरासो विदथमा वदेम ॥
स्वर रहित पद पाठइमे । जीवा: । वि । मृतै: । आ । अववृत्रन् । अभूत् । भद्रा । देवऽहूति: । न: । अद्य । प्राञ्च: । अगाम । नृतये । हसाय । सुऽवीरास: । विदथम् । आ । वदेम ॥२.२२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 22
भाषार्थ -
(इमे जीवाः) ये जीवित मनुष्य, (मृतैः) मृतों से (वि) वियुक्त अर्थात् अलग हो कर, (आ ववृत्रन्) लौट आए हैं, (अद्य) आज (नः) हमारी (देवहूतिः) परमेश्वर देव के प्रति पुकार या प्रार्थना (भद्रा) कल्याणकारिणी तथा सुखप्रदा (अभूत्) हुई है। (प्राञ्चः) आगे की ओर (अगाम) हम बढ़े है, (नृतये हसाय) नाचने और हंसी-खुशी के लिये। (सुवीरासः) उत्तम धर्मवीर तथा शूरवीर हो कर (विदथम्) ज्ञान गोष्ठियों में (आवदेम) हम परस्पर ज्ञानचर्चा करें।
टिप्पणी -
[संक्रामक रोग में कतिपय सम्बन्धियों की मृत्यु हो जाय तो उन की जीवित अन्त्येष्टि के पश्चात् शेष सम्बन्धी वापिस आ कर दुःख या शोक में ग्रस्त न हो जाय, अपितु परमेश्वर के उपासक होते हुए प्रसन्नता पूर्वक उन्नति पथ पर चलते रहें, और परस्पर मिल कर ज्ञान बढ़ाते रहें। भद्रा = भद् कल्याणे सुखे च। विदथम् =विदथानि वेदनानि (ज्ञानानि); यथा "विदथानि प्रचोदयन्" (ऋ० ३।२७।७); (निरुक्त ६।२।७)]