अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 43
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
इ॒मं क्र॒व्यादा वि॑वेशा॒यं क्र॒व्याद॒मन्व॑गात्। व्या॒घ्रौ कृ॒त्वा ना॑ना॒नं तं ह॑रामि शिवाप॒रम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । क्र॒व्य॒ऽअत् । आ । वि॒वे॒श॒ । अ॒यम् । क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । अनु॑ । अ॒गा॒त् । व्या॒घ्रौ । कृ॒त्वा । ना॒ना॒नम् । तम् । ह॒रा॒मि॒ । शि॒व॒ऽअ॒प॒रम् ॥२.४३॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं क्रव्यादा विवेशायं क्रव्यादमन्वगात्। व्याघ्रौ कृत्वा नानानं तं हरामि शिवापरम् ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । क्रव्यऽअत् । आ । विवेश । अयम् । क्रव्यऽअदम् । अनु । अगात् । व्याघ्रौ । कृत्वा । नानानम् । तम् । हरामि । शिवऽअपरम् ॥२.४३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 43
भाषार्थ -
(इमम्) इस रोगी में (क्रव्याद्) मांसभक्षक-अग्नि (आ विवेश) आ प्रविष्ट हुई है, (अयम्) यह रोगी (क्रव्यादम्) मांसभक्षक-अग्नि का (अनु अगात्) स्वयं अनुगामी बना है। इन दोनों को (नानानम्) भिन्न भिन्न प्राणशक्तियों वाले (व्याघ्रौ कृत्वा) दो व्याघ्ररूप कर के, (तम्) उस का (हरामि) मैं संहार करता हूं, (शिवापरम्) जो शिव से अपर अर्थात् भिन्न है, अशिव है।
टिप्पणी -
[क्रव्याद्, - यक्ष्मरोगरूप में रोगी में प्रविष्ट हुई है, जो कि रोगी के मांस का भक्षण करती रहती है, श्मशानाग्नि के रूप में प्रविष्ट नहीं हुई। वस्तुतः रोगी ने स्वयं क्रव्याद् अर्थात् यक्ष्मरोग का आह्वान किया है, स्वास्थ्य के नियमों के भंग द्वारा। रोगी और यक्ष्मरूपी क्रव्याद्-इन दोनों में यक्ष्म तो व्याघ्ररूप स्वयं हैं, जो कि रोगी को खाता जाता है। यक्ष्म का वैद्य नाना उपचारों द्वारा रोगी की प्राणशक्ति का उद्धार करके रोगी को शनैः-शनैः प्रबल व्याघ्र बना देता है, और इस व्याघ्र द्वारा अशिव यक्ष्मरूपी व्याघ्र का संहार कहता है। व्याघ्रौ, पशुव्याघ्र नहीं, अपितु दो परस्पर विरोधी शक्तियां हैं, स्वास्थ्यशक्ति और रोगशक्ति। नानानम्= नाना (भिन्न-भिन्न) + अनम् (अन् प्राणने, प्राणशक्तिया)। रोग में भी निज प्राणशक्ति होती है, जिस द्वारा वह अपने स्वरूप को बनाए रखने तथा विजयी करने में सशक्त होता है। वर्णन कवितामय है]।