अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 51
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
येश्र॒द्धा ध॑नका॒म्या क्र॒व्यादा॑ स॒मास॑ते। ते वा अ॒न्येषां॑ कु॒म्भीं प॒र्याद॑धति सर्व॒दा ॥
स्वर सहित पद पाठये । अ॒श्र॒ध्दा: । ध॒न॒ऽका॒म्या । क्र॒व्य॒ऽअदा॑ । स॒म्ऽआस॑ते । ते । वै । अ॒न्येषा॑म् । कु॒म्भीम् । प॒रि॒ऽआद॑धति । स॒र्व॒दा ॥२.५१॥
स्वर रहित मन्त्र
येश्रद्धा धनकाम्या क्रव्यादा समासते। ते वा अन्येषां कुम्भीं पर्यादधति सर्वदा ॥
स्वर रहित पद पाठये । अश्रध्दा: । धनऽकाम्या । क्रव्यऽअदा । सम्ऽआसते । ते । वै । अन्येषाम् । कुम्भीम् । परिऽआदधति । सर्वदा ॥२.५१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 51
भाषार्थ -
(ये) जो (अश्रद्धाः) श्रद्धा विहीन व्यक्ति (क्रव्याद्) क्रव्याद् के साथ (समासते) रल-मिल कर रहते हैं। (धनकाम्याः) और धन की कामना वाले होते हैं, (ते वै) वे निश्चय से (सर्वदा) सब जीवन काल तक (अन्येषाम्) दूसरों की (कुम्भीम्) हंडियां को (पर्यादधति) अग्नि पर चढ़ाते रहते हैं।
टिप्पणी -
[जो वेदोपदिष्ट कर्तव्यों पर श्रद्धा नहीं रखते, वे कुकर्मों के मार्ग पर चलते हुए, क्रव्याद् के संगी-साथी बन कर, धन का अपव्यय कर धनविहीन हो जाते, और धनप्राप्ति की कामना से दूसरों की पाकशालाओं में पाचक बने रहते हैं। कुमार्ग पर चलने से व्यक्ति अल्पायु हो जाता है, मानो क्रव्याद् उस पर शीघ्र आक्रमण कर देती है।