अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 19
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
सीसे॑ मृड्ढ्वं न॒डे मृ॑ड्ढ्वम॒ग्नौ संक॑सुके च॒ यत्। अथो॒ अव्यां॑ रा॒मायां॑ शीर्ष॒क्तिमु॑प॒बर्ह॑णे ॥
स्वर सहित पद पाठसीसे॑ । मृ॒ड्ढ्व॒म् । न॒डे । मृ॒ड्ढ्व॒म् । अ॒ग्नौ । सम्ऽक॑सुके । च॒ । यत् । अथो॒ इति॑ । अव्या॑म् । रा॒माया॑म् । शी॒र्ष॒क्तिम् । उ॒प॒ऽबर्ह॑णे ॥२.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
सीसे मृड्ढ्वं नडे मृड्ढ्वमग्नौ संकसुके च यत्। अथो अव्यां रामायां शीर्षक्तिमुपबर्हणे ॥
स्वर रहित पद पाठसीसे । मृड्ढ्वम् । नडे । मृड्ढ्वम् । अग्नौ । सम्ऽकसुके । च । यत् । अथो इति । अव्याम् । रामायाम् । शीर्षक्तिम् । उपऽबर्हणे ॥२.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 19
भाषार्थ -
(यत् शीर्षक्तिम्) जो शिरोवेदना है उस को (सीसे) सीसभस्म में (मृड्ढ्वम्) धो डालो, (नडे) नड में (मृड्ढ्वम्) धो डालो, (च संकसुके अग्नौ) और संकसुक अग्नि में धो डालो। (अथो) तथा (रामायाम् अव्याम्) अभिराम तथा रक्षक सूर्य में धो डालो, (उपबर्हणे) तथा उपबर्हण में धो डालो।
टिप्पणी -
[सीसभस्म द्वारा शिरोवेदना दूर होती हैं। यथा "सोंठ के चूर्ण और पुराने गुड़ के साथ नागभस्म अर्थात् सीस भस्म को खाने से सिर का दर्द और कमर का दर्द मिटता हैं" (वनौषधि चन्द्रोदय 'सीस' शीर्षक में)। नडे= सीसभस्म नड पर तय्यार की जाती है, अतः शीर्षक्ति रोग में नड का वर्णन हुआ है। संकसुक अग्नि नडाग्नि प्रतीत होती है, जिसे नड पर प्रदीप्त कर के सीसभस्म तय्यार होती है। संकसुक अग्नि, शवाग्नि है, परन्तु नड तथा सीस के दाहक होने के कारण नडाग्नि को भी संकुसक अग्नि कहा प्रतीत होता है। यह शव का भी दहन करती है तथा नड और सीस का भी। अव्याम् रामायाम् = रमणीय गुणों वाला रक्षक सूर्य (भव रक्षणे)। यथा “अविर्वै नाम देवतर्तेनास्ते परीवृता। तस्या रूपेणेमे वृक्षा हरिता हरितस्रजः।। (अथर्व० १०/८/३१)। इस मन्त्र में "अवि" द्वारा रक्षक सूर्य का वर्णन हुआ है, जिस द्वारा कि वृक्ष हरे होते हैं, और लतारूपी हरी मालाएं धारण करते हैं। "अव्यां रामायाम्१" "काली भेड़ के दूध में"– ऐसा अर्थ भी सम्भव है। परीक्षणों द्वारा यह देखना चाहिये कि इस दूध का यक्ष्मरोग, यक्ष्मरोग-जन्य शिरोवेदना या सामान्य शिरोवेदना के साथ सम्बन्ध है या नहीं। उपबर्हणे – उपबर्हण का अर्थ प्रायः सिरहाना अर्थात् तकिया होता है। इस का सामान्य अभिप्राय यह हो सकता है कि शिरोवेदना में तकिये पर सिर रख कर सो जाओ तो सोने से आराम मिल जायेगा। परन्तु इस का अन्य अर्थ भी सम्भव है। शीर्षक्तिरोग यक्ष्मा का भी परिणाम होता है, देखो (अथर्व० ९।८।१, १०)। सिर के रोगों की निवृत्ति "उदित होते हुए आदित्य की रश्मियों" द्वारा भी होती है, और यक्ष्मरोग का भी विनाश होता है। यथा "सं ते शीर्ष्णः कपालानि हृदयस्य च यो विधुः। उद्यान्नादित्य रश्मिभिः शीर्ष्णो रोगमनीनशोऽङ्ग-भेदमशीशमः" (अथर्व० ९।८।२२)। तथा "शीर्षण्ययक्ष्मा को मस्तिष्क से निकाल देने का वर्णन", तथा तदर्थ "कश्यप के वीवर्हण" के प्रयोग का भी वर्णन मिलता है। यथा "यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काजिह्वाया विवृहामि ते" (अथर्व० २।३३।१); तथा “कश्यपस्य वीवर्हेण विश्वञ्चं विवृहामि ते" (अथर्व० २।३३।७)। "कश्यप" का अभिप्राय है आदित्य। यथा "कश्यपस्य ज्योतिषा वर्चसा च" (अथर्व० १७।१।२८)। ज्योति और वर्चस् से सम्पन्न आदित्य ही है। २।२३।७, २८ में "विवृहामि", "वीवर्हेण” तथा "उपवर्हणे" में एक ही "वृह" धातु का प्रयोग है, जिसका अर्थ है - हिंसा (चुरादि, भ्वादिगण)। इस प्रकार "उपवर्हण" का अर्थ है "हिंसा करने वाली आदित्य की रश्मि"; हिंसा = रोग की हिंसा अर्थात् विनाश। इस प्रकार "अवि", और "कश्यप " समानाभिप्रायक हैं]। [१. रामा = कृष्णा, काली ! यथा "अधोरामः सावित्रः" इति पशुसंमाम्नाये (यजु० २९।२८) विज्ञायते, कस्मात् सामान्यादित्यवस्तात्तद् वेलायां तमो भवत्येतस्मात् सामान्यात, अधस्ताद् रामोऽधस्तात् कृष्णः (निरुक्त १२।२-४; सविता की व्याख्या में)।]