अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 17
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
यस्मि॑न्दे॒वा अमृ॑जत॒ यस्मि॑न्मनु॒ष्या उ॒त। तस्मि॑न्घृत॒स्तावो॑ मृ॒ष्ट्वा त्वम॑ग्ने॒ दिवं॑ रुह ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न् । दे॒वा: । अमृ॑जत । यस्मि॑न् । म॒नु॒ष्या᳡: । उ॒त । तस्मि॑न् । घृ॒त॒ऽस्ताव॑: । मृ॒ष्वा । आ । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । दिव॑म् । रु॒ह॒ ॥२.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्देवा अमृजत यस्मिन्मनुष्या उत। तस्मिन्घृतस्तावो मृष्ट्वा त्वमग्ने दिवं रुह ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मिन् । देवा: । अमृजत । यस्मिन् । मनुष्या: । उत । तस्मिन् । घृतऽस्ताव: । मृष्वा । आ । त्वम् । अग्ने । दिवम् । रुह ॥२.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 17
भाषार्थ -
(यस्मिन्) जिस यज्ञाग्नि में (देवाः) विद्वानों ने (अमृजत) अपने-आप को शुद्ध किया, (उत) तथा (मनुष्याः) सामान्य मनुष्यों ने (यस्मिन्) जिस यज्ञाग्नि में अपने आप को शुद्ध किया, (तस्मिन्) उस यज्ञाग्नि में (घृतस्तावः) घृताहुतियों द्वारा परमेश्वर का स्तवन करने वाले हे रोगिन् ! (मृष्ट्वा) अपने को शुद्ध करके, (अग्ने) हे अग्नि के समान शुद्ध हुआ हुआ (त्वम्) तू (दिवम्) मोद और कान्ति के [शिखर पर] (रुह) आरोहण कर।
टिप्पणी -
[परमेश्वर की स्तुति पूर्वक शुद्ध घृताहुतियां देने का वर्णन है। इस से गृहशुद्धि होती है और व्यक्ति सुखी होता और शारीरिक कान्ति प्राप्त करता है। दिव्= मोद, कान्ति (धातुपाठ)]।