अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
यद्य॒ग्निः क्र॒व्याद्यदि॒ वा व्या॒घ्र इ॒मं गो॒ष्ठं प्र॑वि॒वेशान्यो॑काः। तं माषा॑ज्यं कृ॒त्वा प्र हि॑णोमि दू॒रं स ग॑च्छत्वप्सु॒षदोऽप्य॒ग्नीन् ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑। अ॒ग्नि: । क्र॒व्य॒ऽअत् । यदि॑ । वा॒ । व्या॒घ्र: । इ॒मम् । गो॒ऽस्थम् । प्र॒ऽवि॒वेश॑ । अनि॑ऽओका: । तम् । माष॑ऽआज्यम् । कृ॒त्वा । प्र । हि॒णो॒मि॒ । दू॒रम् । स: । ग॒च्छ॒तु॒ । अ॒प्सु॒ऽसद॑: । अपि॑ । अ॒ग्नीन् ॥२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्यग्निः क्रव्याद्यदि वा व्याघ्र इमं गोष्ठं प्रविवेशान्योकाः। तं माषाज्यं कृत्वा प्र हिणोमि दूरं स गच्छत्वप्सुषदोऽप्यग्नीन् ॥
स्वर रहित पद पाठयदि। अग्नि: । क्रव्यऽअत् । यदि । वा । व्याघ्र: । इमम् । गोऽस्थम् । प्रऽविवेश । अनिऽओका: । तम् । माषऽआज्यम् । कृत्वा । प्र । हिणोमि । दूरम् । स: । गच्छतु । अप्सुऽसद: । अपि । अग्नीन् ॥२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(यदि क्रव्याद् अग्निः) यदि मांसभक्षक अग्नि, (यदि वा) अथवा (अन्योकाः१) अन्य घर वाला (व्याघ्रः) क्रव्याद् अग्निरूपी व्याघ्र (इमं गोष्ठम्) इस इन्द्रियों के निवास स्थान शरीर में (प्रविवेश) प्रविष्ट हो गया है, तो (तम्) उस क्रव्याद् अग्निरूपी व्याघ्र को, (माषाज्यम्) उर्द और घृतयुक्त या उर्द और अजाघृत युक्त करके (दूरं प्रहिणोमि) मैं दूर करता हूं। (सः) वह क्रव्याद् अग्नि (अप्सु सदः अपि अग्नीन् गच्छतु) जलों में स्थित अग्नियों को भी प्राप्त हो।
टिप्पणी -
[क्रव्याद्-अग्नि है, यक्ष्मरोग। यह शरीर को खा जाती है, भस्मीभूत कर देती है। यह व्याघ्र रूप है। इस का घर अन्य है, यक्ष्मरोग के कीटाणु१। गोष्ठम् = गावः इन्द्रियाणि+स्थ। माषाज्यम्= उर्द और शुद्ध घृत या अजाघृत के सेवन से यक्ष्मरोगाग्नि दूर हो जाती हैं। कौशिकसूत्र ७१।६ के अनुसार माष, आज्य और शुक्ति (मोती) की आहुतियों का विधान है। आहुतियां बाह्य अग्नि में तथा जाठराग्नि में देनी चाहिये। यक्ष्माग्नि की निवृत्ति के लिये जल चिकित्सा तथा जलों द्वारा प्राप्त वैद्युताग्नि का भी विधान प्रतीत होता है। यथा “अप्सुषदोऽप्यनीन्। व्याघ्रः = अथर्ववेद में व्याघ्र पद गौणार्थक भी है। यथा (१२।२।४३)। तथा चबाने की दो दाढ़ें = व्याघ्रौ (६।१४०।१)। व्याघ्रः = राजा (अथर्व० ४।८।४; ८।५।१२) इत्यादि]। [१. अथवा क्रव्याद्-अग्नि को यतः व्याघ्र कहा है, परन्तु व्याघ्रों का ओकः अर्थात् घर होता है जङ्गल, नकि प्राणियों के शरीर, अतः व्याघ्राग्नि को अन्योकाः कहा है। वेदों में रोग के कीटाणुओं को पिशाच कहा है, अर्थात् पिशित (मांस) की याचना करने वाले। अच= याचने (भ्वादि)।]