अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 11
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
समि॑न्धते॒ संक॑सुकं स्व॒स्तये॑ शु॒द्धा भव॑न्तः॒ शुच॑यः पाव॒काः। जहा॑ति रि॒प्रमत्येन॑ एति॒ समि॑द्धो अ॒ग्निः सु॒पुना॑ पुनाति ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । इ॒न्ध॒ते॒ । सम्ऽक॑सुकम् । स्व॒स्तये॑ । शु॒ध्दा: । भव॑न्त: । शुच॑य: । पा॒व॒का: । जहा॑ति । रि॒प्रम् । अति॑ । एन॑: । ए॒ति॒ । सम्ऽइ॑ध्द: । अ॒ग्नि: । सु॒ऽपुना॑ । पु॒ना॒ति॒ ॥२.११॥
स्वर रहित मन्त्र
समिन्धते संकसुकं स्वस्तये शुद्धा भवन्तः शुचयः पावकाः। जहाति रिप्रमत्येन एति समिद्धो अग्निः सुपुना पुनाति ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । इन्धते । सम्ऽकसुकम् । स्वस्तये । शुध्दा: । भवन्त: । शुचय: । पावका: । जहाति । रिप्रम् । अति । एन: । एति । सम्ऽइध्द: । अग्नि: । सुऽपुना । पुनाति ॥२.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(स्वस्तये) कल्याण के लिये [मृतक के सम्बन्धी] (संकसुकम्) सम्यक् अर्थात् पूर्णरूप में शासन करने वाली श्मशानाग्नि को (समिन्धते) सम्यक्तया प्रदीप्त करते हैं, तदनन्तर (शुद्धाः भवन्तः) स्नान द्वारा शुद्ध होते, और (शुचयः पावकाः) पवित्र करने वाली यज्ञिय अग्नियों के सदृश पवित्र होते हैं। [गृहशुद्धि के लिये] (समिद्धः अग्निः) प्रदीप्त किया यज्ञिय अग्नि (रिप्रम्) अशुद्धिरूपी मल को (जहाति) दूर करती या छुड़ाती है, (एनः अत्येति) पापी रोगकीटाणु का अतिक्रमण करती, तथा (सुपुना) उत्तमतया पवित्र करने वाली ज्वाला द्वारा (पुनाति) पवित्र कर देती है।
टिप्पणी -
[सङ्कसुकम् = सम् + कस् (शासने, कसि गतिशासनयोः), मृत्यु होने पर क्रव्याद्-अग्नि अर्थात् श्मशानाग्नि सम्यक् शिक्षा देती है। समिन्धते = इन्धन तथा यथोचित सामग्री के द्वारा प्रदीप्त करते हैं। शव की अन्त्येष्टि के पश्चात् स्नान द्वारा तथा मन्त्र जाप द्वारा शुद्ध और पवित्र हो कर, यज्ञाग्नि को प्रदीप्त कर गृहशुद्धि करनी चाहिये। इस द्वारा रोग द्वारा उत्पन्न हुए मलादि दूर जाते हैं। मृत्यु बड़ा शिक्षा गुरु१ है, जिसे देख कर कई बार जीवन में सुधार होता है, और व्यक्ति ऐसे कर्मों के करने से उपरत हो जाता है जो कि यक्ष्म के उत्पादक हों, और शुद्धाचरण वाला हो जाता है]। [१. इस सम्बन्ध में कठोपनिषद् में नचिकेता और मृत्यु का संवाद द्रष्टव्य है।]