अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 37
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
अ॑यज्ञि॒यो ह॒तव॑र्चा भवति॒ नैने॑न ह॒विरत्त॑वे। छि॒नत्ति॑ कृ॒ष्या गोर्धना॒द्यं क्र॒व्याद॑नु॒वर्त॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒य॒ज्ञि॒य: । ह॒तऽव॑र्चा: । भ॒व॒ति॒ । न । ए॒ने॒न॒ । ह॒वि: । अत्त॑वे । छि॒नत्ति॑ । कृ॒ष्या: । गो: । धना॑त् । यम् । क॒व्य॒ऽअत् । अ॒नु॒ऽवर्त॑ते ॥२.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
अयज्ञियो हतवर्चा भवति नैनेन हविरत्तवे। छिनत्ति कृष्या गोर्धनाद्यं क्रव्यादनुवर्तते ॥
स्वर रहित पद पाठअयज्ञिय: । हतऽवर्चा: । भवति । न । एनेन । हवि: । अत्तवे । छिनत्ति । कृष्या: । गो: । धनात् । यम् । कव्यऽअत् । अनुऽवर्तते ॥२.३७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 37
भाषार्थ -
(यम्, क्रव्याद्, अनुवर्तते) क्रव्याद् अग्नि जिस का पीछा करती है वह (अयज्ञियः) यज्ञ करने योग्य नहीं रहता, (हतवर्चा, भवति) और कान्तिरहित हो जाता है, (एनेन) इस द्वारा (हविः) अन्न (न अत्तवे) नहीं खाया जाता। वह (कृष्याः, गोः, धनात्) कृषि कर्म से, गौओं और धन से (छिनत्ति) अपने आप को काट लेता है, वञ्चित कर लेता है।
टिप्पणी -
[जिसे यक्ष्म रोग हुआ मानो शवाग्नि उस का पीछा कर रही है। वह न यज्ञ करने में शक्त होता, न खा-पी सकता, कान्ति से रहित हो जाता, और सम्पत्ति से भी वञ्चित हो जाता है]।