अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 21
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
पृथ॑ग्रू॒पाणि॑ बहु॒धा प॑शू॒नामेक॑रूपो भवसि॒ सं समृ॑द्ध्या। ए॒तां त्वचं॒ लोहि॑नीं॒ तां नु॑दस्व॒ ग्रावा॑ शुम्भाति मल॒ग इ॑व॒ वस्त्रा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपृथ॑क् । रू॒पाणि॑ । ब॒हु॒ऽधा । प॒शू॒नाम् । एक॑ऽरूप: । भ॒व॒सि॒ । सम् । सम्ऽऋ॑ध्द्या । ए॒ताम् । त्वच॑म् । लोहि॑नीम् । ताम्। नु॒द॒स्व॒ । ग्रावा॑ । शु॒म्भा॒ति॒ । म॒ल॒ग:ऽइ॑व । वस्त्रा॑ ॥३.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
पृथग्रूपाणि बहुधा पशूनामेकरूपो भवसि सं समृद्ध्या। एतां त्वचं लोहिनीं तां नुदस्व ग्रावा शुम्भाति मलग इव वस्त्रा ॥
स्वर रहित पद पाठपृथक् । रूपाणि । बहुऽधा । पशूनाम् । एकऽरूप: । भवसि । सम् । सम्ऽऋध्द्या । एताम् । त्वचम् । लोहिनीम् । ताम्। नुदस्व । ग्रावा । शुम्भाति । मलग:ऽइव । वस्त्रा ॥३.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 21
भाषार्थ -
(पशूनां रूपाणि) पशुओं के रूप (बहुधा पृथक्) बहुत कर के पृथक् पृथक् होते हैं, (सं समृद्ध्या) सम्यक्१ समृद्धि द्वारा (एक रूपः भवसि) तू एक रूप हो जाता है। (एतां लोहिनीं त्वचम्) इस लोहिनी त्वचा को (नुदस्व) पृथक् कर, इस निमित्त (ग्रावा) विज्ञानी-उपदेष्टा गुरु (ताम् शुम्भाति) उस को शुभ्र रूप करे, (इव) जैसे कि (मलगः) वस्त्रों के मल को पृथक् करने वाला धोवी (वस्त्रा = वस्त्राणि) वस्त्रों को शुभ्ररूप करता है।
टिप्पणी -
[पशुओं में पुरुष भी पशु है, "तवेमे पञ्च पशवो विभक्ता गावो अश्वा पुरुषाः अजावयः" (अथर्व० ११।२।९)। पुरुष भी नाना रूप होता है, कभी तामसिक रूप, कभी राजसिक रूप, और कभी सात्त्विक रूप। जीवात्मा कई कोशों से घिरा हुआ है, जिन में दो मुख्य हैं, (१) एक शरीर जिसे कि "लोहिनी त्वचा" कहा है। इस त्वचा का सम्बन्ध लोहित (रक्त) से है। (३) दूसरी त्वचा को भी "लोहिनो त्वचा" कहा है। यह है रजोगुण वाली मनोरूप त्वचा। मनोरूप-त्वचा प्रायः पुरुषों में रजोगुणी२ होती है। रजोगुण का धर्म है क्रियाशीलता। जागते-सोते मन सदा क्रियाशील रहता है। त्वचा है आवरण रूप (त्वच् संवरणे)। ये दो आवरण या कोश जीवात्मा को घेरे हुए हैं। इन्हें सद्गुरु द्वारा निर्दिष्ट उपायों द्वारा पृथक् करके जीवात्मा शुभ्र सात्त्विक दृष्टि से "एकरूप" हो जाता है। जीवात्मा के तमोरूप और रजोरूप मलों को सद्गुरु धो डालता है। मलगः= मलं गमयति, अपाकरोति, अपगमयति=धोबी। ग्रावा= गुरुः, गृणातेः (निरुक्त ९।१।६); गृ विज्ञाने; शब्दे; गुरु]। तण्डुल पक्ष में— तण्डुल व्रीहि से निकलते हैं। व्रीहि के नाना रूप होते हैं। व्रीहि को देख कर बताया जा सकता है कि व्रीहिवर्ती तण्डुल किस प्रकार का है। तण्डुल नाना प्रकार के होते हैं, और उन के दाम भी इस लिये अलग-अलग होते हैं। ये तण्डुल भी पशु हैं। काण्ड ११, सूक्त ३ मन्त्र ५ में कहा है कि अश्वाः कणा गावस्तण्डुला मशकास्तुषाः"। जब समृद्धि होती है, अर्थात् धान को कूटा, छांटा जाता है तो सब प्रकार के तण्डुल एक रूप हो जाते हैं, शुभ्र रूप हो जाते हैं। इन की पहली त्वचा अर्थात् आवरण लोहिनी अर्थात् रोहणी होती है। इस त्वचा के होते बीज का जन्म होता है, पौदा पैदा होता है (रुह बीजजन्मनि)। दूसरी त्वचा तण्डुल के साथ चिपकी होती है। पालिश की विधि से इस त्वचा को पृथक् करने से प्रत्येक प्रकार का तण्डुल एकरूप, शुभ्ररूप हो जाता है। तण्डुल पक्ष में "ग्रावा" है चक्की का पाट। ग्रावा = हन्तेः (निरुक्त ९।१।६) अर्थात् व्रीहि का अवहनन कर पाट उसे तण्डुलरूप प्रदान करता है। यथा "व्रीहीनवहन्ति (शतपथ ब्राह्मण)। व्रीहि = धान। [१. योगाभ्यास जन्य समृद्धि। २. रजोगुण को "लोहित” भी कहते हैं, यथा "अजमेकां लोहितशुक्ल कृष्णाम् (श्वेता० उप० अध्या० ४, खण्ड ५) में रजोगुण को "लोहित" सत्त्वगुण शुक्ल, तथा तमोगुण को "कृष्ण" कहा है। अजा= न जन्म लेने वाली प्रकृति, अर्थात् नित्या— प्रकृति।]