अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 16
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
स॒प्त मेधा॑न्प॒शवः॒ पर्य॑गृह्ण॒न्य ए॑षां॒ ज्योति॑ष्माँ उ॒त यश्च॒कर्श॑। त्रय॑स्त्रिंशद्दे॒वता॒स्तान्स॑चन्ते॒ स नः॑ स्व॒र्गम॒भि ने॑ष लो॒कम् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त । मेधा॑न् । प॒शव॑: । परि॑ । अ॒गृ॒ह्ण॒न् । य: । ए॒षा॒म् । ज्योति॑ष्मान् । उ॒त । य: । च॒कर्श॑ । त्रय॑:ऽत्रिंशत्। दे॒वता॑: । तान् । स॒च॒न्ते॒ । स: । न॒: । स्व॒ऽगम् । अ॒भि । ने॒ष॒ । लो॒कम् ॥३.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त मेधान्पशवः पर्यगृह्णन्य एषां ज्योतिष्माँ उत यश्चकर्श। त्रयस्त्रिंशद्देवतास्तान्सचन्ते स नः स्वर्गमभि नेष लोकम् ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त । मेधान् । पशव: । परि । अगृह्णन् । य: । एषाम् । ज्योतिष्मान् । उत । य: । चकर्श । त्रय:ऽत्रिंशत्। देवता: । तान् । सचन्ते । स: । न: । स्वऽगम् । अभि । नेष । लोकम् ॥३.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 16
भाषार्थ -
(पशवः) पशुओं ने (सप्त मेधान् = मेधाः) सात मेधाओं का (पर्यगृह्णन्) परिग्रह किया है, (एषाम्) इन पशुओं में (यः) जो (ज्योतिष्मान्) प्रशस्त ज्योति प्रर्थात् मेधावान् होता है, (उत) और (यः चकर्ष) जो मेधा में प्रकृष्ट है, (तान्=तम्) उस को (त्रयस्त्रिंशत्१) ३३ (देवताः) दिव्य शक्तियां (सचन्ते) प्राप्त होती है। (सः) वह ज्योतिष्मान् व्यक्ति (नः) हमें (स्वर्गम् लोकम् अभि) स्वर्ग लोक की ओर (नेष) ले चले, अर्थात् हमारे गृहस्थों को स्वर्गीय करे।
टिप्पणी -
[सप्त मेधान् = सप्तमेधाः। सप्तमेधान् अर्थ है "सातयज्ञों को" और सप्तमेधाः का अर्थ है "सात प्रज्ञानों को"। मन्त्र में "सप्तमेधान्” सम्भवतः "सप्तमेधाः" वाचक हो। ज्योतिष्मान् पद के स्थान में अथर्ववेद की पैप्पलादशाखा में "मेधस्वान्" पठित है। सप्तमेधाः हैं, ५ ज्ञानेन्द्रियां, १ मन, १ बुद्धि। इन्हें यजुर्वेद में सात ऋषि भी कहा है, यथा "सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे" (३४।५५)। तथा "अत्रासत ऋषयः सप्त साकम्" (ऋ० १०।८।९) में भी मस्तिष्क में ७ ऋषियों का स्थान दर्शाया है। "सप्तमेधान्" का अर्थ है "सातयज्ञ"। ये कौन से सात यज्ञ हैं जिन का कि परिग्रह पशुओं ने किया हुआ है, ज्ञात नहीं। ५ ज्ञानेन्द्रियां, मन और बुद्धि तो सब पंशुओं में है, किन्हीं में कम और किन्हीं में अधिक। सम्भवतः यजुर्वेदोक्त ७ ऋषियों को निजस्थानों में यज्ञकर्ताओं के रूप में अधिकतर माना है। पशवः = वेद की दृष्टि में ५ प्रकार के पशु अधिक उपयोगी मान कर उन्हें ५ विभागों में विभक्त किया है। यथा “तवेमे पञ्च पशवो विभक्ता गावो अश्वाः पुरुषा अजावयः" (अथर्व० ११।२।९)। इन सब में सप्तमेधाएं विद्यमान हैं] [१. ये ३३ देवता शरीरगत शारीरिक और मानसिक दिव्य शक्तियां प्रतीत होती हैं, आधिदैविक नहीं। आधिदैविक ३३ देवों की प्राप्ति अशक्य है।]