अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 33
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
वन॑स्पते स्ती॒र्णमा सी॑द ब॒र्हिर॑ग्निष्टो॒मैः संमि॑तो दे॒वता॑भिः। त्वष्ट्रे॑व रू॒पं सुकृ॑तं॒ स्वधि॑त्यै॒ना ए॒हाः परि॒ पात्रे॑ ददृश्राम् ॥
स्वर सहित पद पाठवन॑स्पते । स्ती॒र्णम् । आ । सी॒द॒ । ब॒र्हि: । अ॒ग्नि॒ऽस्तो॒मै: । सम्ऽमि॑त: । दे॒वता॑भि: । त्वष्ट्रा॑ऽइव । रू॒पम् । सुऽकृ॑तम् । स्वऽधि॑त्या । ए॒ना । ए॒हा: । परि॑ । पात्रे॑ । द॒ह॒श्रा॒म् ॥३.३३॥
स्वर रहित मन्त्र
वनस्पते स्तीर्णमा सीद बर्हिरग्निष्टोमैः संमितो देवताभिः। त्वष्ट्रेव रूपं सुकृतं स्वधित्यैना एहाः परि पात्रे ददृश्राम् ॥
स्वर रहित पद पाठवनस्पते । स्तीर्णम् । आ । सीद । बर्हि: । अग्निऽस्तोमै: । सम्ऽमित: । देवताभि: । त्वष्ट्राऽइव । रूपम् । सुऽकृतम् । स्वऽधित्या । एना । एहा: । परि । पात्रे । दहश्राम् ॥३.३३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 33
भाषार्थ -
(वनस्पते) हे गृह के स्वामिन् ! (स्तीर्ण बर्हिः) विछाए कुशासन पर (आ सीद) आ विराजिये, (अग्निष्टोमैः) अग्निष्टोम आदि यज्ञों, तथा तत्सम्बन्धी साम गानों के कारण (देवताभिः) इन देवियों और देवताओं द्वारा (संमितः) आप संम्यक्-ज्ञात अर्थात् प्रसिद्ध हैं। (त्वष्ट्रा इव) शिल्पी द्वारा जैसे (स्वधित्या) शस्त्र की सहायता से (रूपं सुकृतम्) वस्तु को सुन्दर रूप किया जाता है, इसी प्रकार (एहाः) भोजनेच्छुक (एनाः) इन देवी-देवताओं को सुन्दर रूप में, (पात्रे) भोजन-पात्र के (परि) चारों ओर बैठे (ददृश्राम्) मैं देखूं।
टिप्पणी -
[वनस्पतिः = वन (A place of abode, residence, house, आप्टे) +पतिः। भोजन के समय वस्त्र स्वच्छ और सुन्दर होने चाहियें। अभ्यागतों के सत्कारार्थ प्रथम यज्ञ तथा गान भी होना चाहिये। गान वैदिक ढंग का सामगान हो। मन्त्र के पूर्वार्द्ध में गृह स्वामी को देवी-देवताओं के मध्य सत्कार पूर्वक बैठाने का वर्णन हुआ है, और उत्तरार्ध में उस ने अभ्यागतों के दर्शन की अभिलाषा प्रकट की है]।