अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 9
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
प्र॒तीची॑ दि॒शामि॒यमिद्वरं॒ यस्यां॒ सोमो॑ अधि॒पा मृ॑डि॒ता च॑। तस्यां॑ श्रयेथां सु॒कृतः॑ सचेथा॒मधा॑ प॒क्वान्मि॑थुना॒ सं भ॑वाथः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒तीची॑ । दि॒शाम् । इ॒यम् । इत् । वर॑म् । यस्या॑म् । सोम॑: । अ॒धि॒ऽपा: । मृ॒डि॒ता । च॒ । तस्या॑म् । श्र॒ये॒था॒म् । सु॒ऽकृत॑: । स॒चे॒था॒म् । अध॑ । प॒क्वात् । मि॒थु॒ना॒ । सम् । भ॒वा॒थ॒: ॥३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रतीची दिशामियमिद्वरं यस्यां सोमो अधिपा मृडिता च। तस्यां श्रयेथां सुकृतः सचेथामधा पक्वान्मिथुना सं भवाथः ॥
स्वर रहित पद पाठप्रतीची । दिशाम् । इयम् । इत् । वरम् । यस्याम् । सोम: । अधिऽपा: । मृडिता । च । तस्याम् । श्रयेथाम् । सुऽकृत: । सचेथाम् । अध । पक्वात् । मिथुना । सम् । भवाथ: ॥३.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(दिशाम्) दिशाओं में (इयम्) यह (प्रतीची) पश्चिम दिशा (इद्) निश्चय से (वरम्) वरणीय है, श्रेष्ठ है, (यस्याम्) जिस में (सोमः) चान्द या वीर्य (अधिपाः) अधिकतया पालक (च मृडिता) और सुखदायी है। (तस्याम्) उस पश्चिम दिशा में (श्रयेथाम्) तुम दोनों आश्रय पाओ, (सुकृतः) सुकर्मियों तथा उत्तम कर्मों के साथ (सचेथाम्) अपना सम्बन्ध करो, (अधा) तदनन्तर (मिथुनौ) तुम दोनों पति-पत्नी (पक्वात्) परिपक्व योगाभ्यास से (सं भवाथः) परस्पर मिलकर नवजीवन धारण करो।
टिप्पणी -
[प्रतीची दिशा ह्रास को सूचित करती है। सूर्य प्राची से उदित होता, मध्याकाश तक चढ़ता जाता, तत्पश्चात् पश्चिम की ओर ढलकता हुमा और शक्ति में क्षीण होता हुआ, पश्चिम में अस्त हो जाता है। यही परिस्थिति शारीरिक जीवन में शरीर की है। ४० वर्षों की आयु के पश्चात् शरीर में परिहाणि का प्रारम्भ हो जाता है, मानो शरीर पश्चिम की ओर ढलकता जाता है। इस ढलकते काल में, वीर्य का प्रयोग सन्तानोत्पत्ति में न कर, योगाभ्यास में करना चाहिये। वीर्य शक्ति के विना योगाभ्यास में सफलता नहीं मिलती। इसलिये योगदर्शन में वीर्य को योगाभ्यास में एक कारण कहा है। "श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञा पूर्वक इतरेषाम्" (योग १।२०)। सोमः=सु (प्रसवे) + मन् (उणा० १।१४०); सुमन् semen। सोमः = तथा चन्द्रमा। चन्द्रमा रात्रि का देवता है और शीतल प्रकाशवाला तथा शान्ति प्रद है। प्राची और दक्षिण शब्दों द्वारा द्योतित जीवन यापन के पश्चात् ढलकती आयु में जीवन को शान्त बना कर, योगाभ्यास करना चाहिये। इस ढलकती आयु में सोम पालक और सुखदायी होता है। इस आयु में सुकर्मियों के साथ सम्पर्क करते हुए उत्तम कर्म करते रहना चाहिये]