अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 59
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्र्यवसाना सप्तपदा शङ्कुमत्यतिजागतशाक्वरातिशाक्वरधार्त्यगर्भातिधृतिः
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
ध्रु॒वायै॑ त्वा दि॒शे विष्ण॒वेऽधि॑पतये क॒ल्माष॑ग्रीवाय रक्षि॒त्र ओष॑धीभ्य॒ इषु॑मतीभ्यः। ए॒तं परि॑ दद्म॒स्तं नो॑ गोपाय॒तास्माक॒मैतोः॑। दि॒ष्टं नो॒ अत्र॑ ज॒रसे॒ नि ने॑षज्ज॒रा मृ॒त्यवे॒ परि॑ णो ददा॒त्वथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥
स्वर सहित पद पाठध्रु॒वायै॑ । त्वा॒ । दि॒शे । विष्ण॑वे । अधि॑ऽपतये । क॒ल्माष॑ऽग्रीवाय । र॒क्षि॒त्रे । ओष॑धीभ्य: । इषु॑ऽमतीभ्य: । ए॒तम् । परि॑। द॒द्म॒: । तम् । न॒: । गो॒पा॒य॒त॒ ।आ । अ॒स्माक॑म् । आऽए॑तो: । दि॒ष्टम् । न॒: । अत्र॑ । ज॒रसे॑ । नि । ने॒ष॒त् । ज॒रा । मृ॒त्यवे॑ । परि॑ । न॒:। द॒दा॒तु॒ । अथ॑ । प॒क्वेन॑ । स॒ह । सम् । भ॒वे॒म॒ ॥३.५९॥
स्वर रहित मन्त्र
ध्रुवायै त्वा दिशे विष्णवेऽधिपतये कल्माषग्रीवाय रक्षित्र ओषधीभ्य इषुमतीभ्यः। एतं परि दद्मस्तं नो गोपायतास्माकमैतोः। दिष्टं नो अत्र जरसे नि नेषज्जरा मृत्यवे परि णो ददात्वथ पक्वेन सह सं भवेम ॥
स्वर रहित पद पाठध्रुवायै । त्वा । दिशे । विष्णवे । अधिऽपतये । कल्माषऽग्रीवाय । रक्षित्रे । ओषधीभ्य: । इषुऽमतीभ्य: । एतम् । परि। दद्म: । तम् । न: । गोपायत ।आ । अस्माकम् । आऽएतो: । दिष्टम् । न: । अत्र । जरसे । नि । नेषत् । जरा । मृत्यवे । परि । न:। ददातु । अथ । पक्वेन । सह । सम् । भवेम ॥३.५९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 59
भाषार्थ -
(ध्रुवायै दिशे) ध्रुवादिशा के लिये, (अधिपतये विष्णवे) ध्रुवादिशा के स्वामी, किरणों द्वारा व्याप्त सूर्य के लिये (कल्माषग्रीवाय रक्षित्रे) विविधरूपों वाली वनस्पतियों की माला जिसने मानों ग्रीवा में पहनी हुई है ऐसे (रक्षित्रे) रक्षक सूर्य के लिये, (इषुमतीभ्यः ओषधीभ्यः) वाणों वाली ओषधियों के लियेः– तथा (अधिपतये विष्णवे) जगत् के अधिपति सर्वव्यापक परमेश्वर के लिये, (कल्माषग्रीवाय) पापमल का निगीर्ण करने वाले (रक्षित्रे) सर्वरक्षक परमेश्वर के लिये, (इषुमतीभ्यः) वाणों वाली सर्वोषधिरूप परमेश्वर के लियेः– (एतं त्वा) इस तुझ को० । दिष्टं नो० पूर्ववत् (५५)।
टिप्पणी -
[ध्रुवा दिशा = पृथिवी। पूर्वादि दिशाएं भिन्न-भिन्न स्थानों की दृष्टि से भिन्न-भिन्न हो जाती हैं। यथा मसूरी की अपेक्षया देहरादून नगर दक्षिण में, और हरिद्वार की अपेक्षया उत्तर में, सहारनपुर की अपेक्षया पूर्व में, तथा ऋषिकेश की अपेक्षया पश्चिम में है। इस प्रकार पूर्व आदि दिशाएं ध्रुव नहीं, स्थिररूप नहीं। परन्तु पृथिवी सदा ध्रुवरूपा है। कल्माषग्रीवः = सूर्यपक्ष में कल्माष का अर्थ है "विविधरूपी" (Variegated, आप्टे), तथा परमेश्वर पक्ष में कल्माष का अर्थ है मल, पाप (Dirt, sin, आप्टे)। परमेश्वर सच्चे उपासकों के चित्त के मलों तथा पापों को निगीर्ण कर देता है, ग्रीवा= गॄ निगरणे। ओषधीभ्यः- सूर्य पक्ष में ओषधयः का अर्थ है "ओषद् धयन्ति; दोषं धयन्ति" (निरुक्त ९।३।२७), अर्थात् जलन पैदा करने वाले रोग को जो पी जाती है, या वात-पित्त-कफ आदि दोषों को जो पी जाती है। रोग निवारण करने के कारण ओषधियां इषु या वाण रूप हैं। ओषधीभ्यः- परमेश्वर पक्ष में परमेश्वर दैहिक, ऐन्द्रियिक तथा मानसिक और आध्यात्मिक रोगों तथा मलों और पापों के निवारण में महौषधि रूप है ! यथा:- भेषजमसि भेषजं गवेऽम्वाय पुरुषाय भेषजम्। सुखं मेषाय मेष्यै॥ (यजु ३।५९)। मन्त्र में परमेश्वर को भेषज कहा है। [भिषज् चिकित्सायाम्] महर्षि दयानन्द “भेजषम् = परमेश्वर। महीधर "भेषजम् = रुद्र। रुद्र भी आध्यात्मिक शक्ति है]