अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 44
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - पराबृहती त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
आ॑दि॒त्येभ्यो॒ अङ्गि॑रोभ्यो॒ मध्वि॒दं घृ॒तेन॑ मि॒श्रं प्रति॑ वेदयामि। शु॒द्धह॑स्तौ ब्राह्मण॒स्यानि॑हत्यै॒तं स्व॒र्गं सु॑कृता॒वपी॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒दि॒त्येभ्य॑: । अङ्गि॑र:ऽभ्य: । मधु॑ । इ॒दम् । घृ॒तेन॑ । मि॒श्रम् । प्रति॑ । वे॒द॒या॒मि॒ । शु॒ध्दऽह॑स्तौ । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । अनि॑ऽहत्य । ए॒तम् । स्व॒:ऽगम् । सु॒ऽकृ॒तौ । अपि॑ । इ॒त॒म् ॥३.४४॥
स्वर रहित मन्त्र
आदित्येभ्यो अङ्गिरोभ्यो मध्विदं घृतेन मिश्रं प्रति वेदयामि। शुद्धहस्तौ ब्राह्मणस्यानिहत्यैतं स्वर्गं सुकृतावपीतम् ॥
स्वर रहित पद पाठआदित्येभ्य: । अङ्गिर:ऽभ्य: । मधु । इदम् । घृतेन । मिश्रम् । प्रति । वेदयामि । शुध्दऽहस्तौ । ब्राह्मणस्य । अनिऽहत्य । एतम् । स्व:ऽगम् । सुऽकृतौ । अपि । इतम् ॥३.४४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 44
भाषार्थ -
(आदित्येभ्यो अङ्गिरोभ्यः) ज्ञानाग्नि विद्या के जानने वाले आदित्य कोटि के विद्वानों के लिये (घृतेन मिश्रम्) घृत सहित (इदं मधु) यह मधु (प्रतिवेद्यामि) निवेदित अर्थात् समर्पित करता हूं। (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मवेत्ता तथा वेदवेत्ता के (एतम्) इस भाग का (अनिहत्य) हनन न करके (शुद्ध हस्तौ) शुद्ध हाथों वाले तुम दोनों पति-पत्नी, (सुकृतौ) सुकर्मों वाले हो कर (स्वर्गम्) स्वर्ग को (अपीतम्) प्राप्त करो।
टिप्पणी -
[जिन आदित्यों और अङ्गिराओं ने हमारे पैशाची विचारों को दूर कर कृपा की है, उस निमित्त हम में से प्रत्येक का कर्तव्य है कि सात्त्विक पदार्थों के दान द्वारा इनकी सेवा करें। दृष्टान्त रूप में शुद्ध गोघृत तथा शुद्ध मधु का निर्देश मन्त्र में हुआ है। शुद्धहस्तौ = हाथों द्वारा पवित्र कर्म करने वाले, यथा "Have clean hands=To be free from guilt. अर्थात् पापों से रहित होना। पैशाची विचारों से रहित होकर शुद्धहस्त पति पत्नी स्वर्ग को प्राप्त कर सकते हैं। "ब्राह्मणस्य" में एक वचन अविवक्षित है, क्योंकि आदित्येभ्यः अङ्गिरोभ्यः में बहुवचन है। अपीतम् = अपि + इतम्]।