अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 58
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्र्यवसाना सप्तपदा शङ्कुमत्यतिजागतशाक्वरातिशाक्वरधार्त्यगर्भातिधृतिः
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
उदी॑च्यै त्वा दि॒शे सोमा॒याधि॑पतये स्व॒जाय॑ रक्षि॒त्रेऽशन्या॒ इषु॑मत्यै। ए॒तं परि॑ दद्म॒स्तं नो॑ गोपाय॒तास्माक॒मैतोः॑। दि॒ष्टं नो॒ अत्र॑ ज॒रसे॒ नि ने॑षज्ज॒रा मृ॒त्यवे॒ परि॑ णो ददा॒त्वथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥
स्वर सहित पद पाठउदी॑च्यै । त्वा॒ । दि॒शे । सोमा॑य । अधि॑ऽपतये । स्व॒जाय॑ । र॒क्षि॒त्रे । अ॒शन्यै॑ । इषु॑ऽमत्यै । ए॒तम् । परि॑। द॒द्म॒: । तम् । न॒: । गो॒पा॒य॒त॒ ।आ । अ॒स्माक॑म् । आऽए॑तो: । दि॒ष्टम् । न॒: । अत्र॑ । ज॒रसे॑ । नि । ने॒ष॒त् । ज॒रा । मृ॒त्यवे॑ । परि॑ । न॒:। द॒दा॒तु॒ । अथ॑ । प॒क्वेन॑ । स॒ह । सम् । भ॒वे॒म॒ ॥३.५८॥
स्वर रहित मन्त्र
उदीच्यै त्वा दिशे सोमायाधिपतये स्वजाय रक्षित्रेऽशन्या इषुमत्यै। एतं परि दद्मस्तं नो गोपायतास्माकमैतोः। दिष्टं नो अत्र जरसे नि नेषज्जरा मृत्यवे परि णो ददात्वथ पक्वेन सह सं भवेम ॥
स्वर रहित पद पाठउदीच्यै । त्वा । दिशे । सोमाय । अधिऽपतये । स्वजाय । रक्षित्रे । अशन्यै । इषुऽमत्यै । एतम् । परि। दद्म: । तम् । न: । गोपायत ।आ । अस्माकम् । आऽएतो: । दिष्टम् । न: । अत्र । जरसे । नि । नेषत् । जरा । मृत्यवे । परि । न:। ददातु । अथ । पक्वेन । सह । सम् । भवेम ॥३.५८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 58
भाषार्थ -
(उदीच्यै दिशे) उत्तर दिशा के लिये (अधिपतये सोमाय) अधिपति उत्पादक के लिये, (स्वजाय रक्षित्रे) स्व सदृशों के उत्पादक रक्षक के लिये, इषु वाली अशनि१ अर्थात् विद्युत् की तरह व्यापक परमेश्वर के लिये (एतं त्वा) इस तुझ को० । दिष्टं नो०। पूर्ववत् (५५)।
टिप्पणी -
[उत्तर दिशा के साथ "सोम" का सम्बन्ध दर्शाया है। सोम का अर्थ वीर्य भी होता है, देखो (अथर्व १४।१।१-५) मन्त्रों की व्याख्या "अथर्ववेदभाष्य, जिल्द ३ ग्रन्थकार कृत)। सोमः= सु (प्रसवे) + मन् (उणा० १।१४०)। सुमन् का विकृतरूप है semen (वीर्य)। सोम अर्थात् semen प्राणिजगत् का उत्पादक है। सोम से जो प्राणी उत्पन्न होते हैं वे "स्वज" होते हैं, वीर्यदाता के स्वसदृशों के उत्पादक होते हैं, स्वज= (स्व + ज)। पक्षियों, पशुओं, मनुष्यों, कृमियों आदि में "स्वज" का नियम दृष्टिगोचर होता है। परमेश्वर उदीची दिशा के प्राणियों का उत्पादक है, इसलिये परमेश्वर को भी सोम अर्थात् उत्पादक कहा है। प्राणि जगत के उत्पादन द्वारा परमेश्वर प्राणिजगत् की स्वसदृश वंश परम्परा की रक्षा करता है। उत्तर दिशा में विविध प्रकार के तथा निज सृष्टि में श्रेष्ठ तथा सर्वश्रेष्ठ मनुष्य प्राणियों के उत्पादक होने से, उत्तर दिशा के साथ परमेश्वर के सोमस्वरूप का सम्बन्ध दर्शाया है। अशनि का व्यवहार यतः उत्तरदिशा में होता है, इसलिये अशनि को इषु कहा है। "अशनि" सम्भवतः उत्तर दिशा में वर्तमान चुम्बक शक्ति या "उत्तरध्रुवीय प्रकाश" भी हो, देखो मन्त्र (५८) की टिप्पणी] [१. अथवा अशनिः =Aurora Borealis. The goddess of dawn. A luminous meteoric phenomenon of electrical character, Seen in and towards the polar regions, with a tremulous motion, and giving forth streams of light.]