अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 24
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
अ॒ग्निः पच॑न्रक्षतु त्वा पु॒रस्ता॒दिन्द्रो॑ रक्षतु दक्षिण॒तो म॒रुत्वा॑न्। वरु॑णस्त्वा दृंहाद्ध॒रुणे॑ प्र॒तीच्या॑ उत्त॒रात्त्वा॒ सोमः॒ सं द॑दातै ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नि: । पच॑न् । र॒क्ष॒तु॒ । त्वा॒ । पु॒रस्ता॑त् । इन्द्र॑: । र॒क्ष॒तु॒ । द॒क्षि॒ण॒त: ।म॒रुत्वा॑न् । वरु॑ण: । त्वा॒ । दृं॒हा॒त् । ध॒रुणे॑ । प्र॒तीच्या॑: । उ॒त्त॒रात् । त्वा॒ । सोम॑: । सम् । द॒दा॒तै॒ ॥३.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निः पचन्रक्षतु त्वा पुरस्तादिन्द्रो रक्षतु दक्षिणतो मरुत्वान्। वरुणस्त्वा दृंहाद्धरुणे प्रतीच्या उत्तरात्त्वा सोमः सं ददातै ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नि: । पचन् । रक्षतु । त्वा । पुरस्तात् । इन्द्र: । रक्षतु । दक्षिणत: ।मरुत्वान् । वरुण: । त्वा । दृंहात् । धरुणे । प्रतीच्या: । उत्तरात् । त्वा । सोम: । सम् । ददातै ॥३.२५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 24
भाषार्थ -
(पचन्) पकाती हुई (अग्निः) अग्नि (त्वा) मुझ कुम्भी को (पुरस्तात्) पूर्व से (रक्षतु) सुरक्षित करे, (मरुत्वान्) मानसून वायु वाला (इन्द्रः) इन्द्र अर्थात् विद्युत् (दक्षिणतः) दक्षिण से (रक्षतु) रक्षित करे। (वरुणः) वरुण अर्थात् जलाधिदेव१ (धरुणे) दृढ़ स्थिति के निमित्त (त्वा) तुझे (प्रतीच्याः) पश्चिम से (दृंहात्) दृढ़ करे, (उत्तरात्) उत्तर से (त्वा) तुझे (सोमः) सोम (सं ददातै) दृढ़ बद्ध करे, बान्धे।
टिप्पणी -
[अग्निः= अग्नि का सम्बन्ध पूर्वदिशा के साथ है, क्योंकि पृथिवी पर जो अग्नि है उसका मूल स्रोत सूर्य है। पृथिवी के दक्षिण में समुद्र फैला हुआ है। वर्षा ऋतु में मानसून वायु के साथ विद्युत् दक्षिणी समुद्र से आकाश में आती है। मरुत्= मानसून वायु (अथर्व० ४।२७।४,५)। पृथिवी के पश्चिम से चान्द का उदय होता है। सम्भवतः इस मन्त्र में वरुण२ द्वारा चान्द का निर्देश हो। समुद्र के ज्वार-भाटा के साथ चान्द का भी सम्बन्ध है, इसलिये चान्द को जलाधिपति भी कहा हो। उत्तर में सोम का सम्बन्ध दर्शाया है। उत्तर में ओषधियां और वनस्पतियां होती हैं। सोम भी ओषधि है। सोम को ओषधियों का अधिपति कहा है। यथा - "सोमो वीरुधामधिपतिः" (अथर्व० ५।२४।७)। अधिपति होने के कारण सोम का सम्बन्ध उत्तर के साथ दर्शाया गया है३। वीरुधः= विविध प्रकार की रोहण करने वाली ओषधियां तथा वनस्पतियां। रोहण= रुह बीजजन्मनि। सं ददातै= सन्दानम् (रञ्जु)] [१. वरुणोऽपामधिपतिः (अथर्व० ५।२४।४)।] [१. वरुणोऽपामधिपतिः (अथर्व० ५।२४।४)। २. वृञ् आवरणे। चांद रात्रि में निज प्रकाश का आवरण पृथिवी पर डालता है॥ ३. कुम्भी के रक्षक दिव्यतत्त्वों के निर्देश द्वारा, इन्हें अपनी-अपनी नियत दिशाओं से, पृथिवीस्थ समस्त प्राणी और अप्राणी जगत् के रक्षकरूप में दर्शाया है। कुम्भी तो एक दृष्टान्तरूप है।]