अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 27
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
उ॒तेव॑ प्र॒भ्वीरु॒त संमि॑तास उ॒त शु॒क्राः शुच॑यश्चा॒मृता॑सः। ता ओ॑द॒नं दंप॑तिभ्यां॒ प्रशि॑ष्टा॒ आपः॒ शिक्ष॑न्तीः पचता सुनाथाः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त्ऽइ॑व । प्र॒ऽभ्वी: । उ॒त । सम्ऽमि॑तास: । उ॒त । शु॒क्रा: । शुच॑य: । च॒ । अ॒मृता॑स: । ता: । ओ॒द॒नम् । दंप॑तिऽभ्याम् । प्रऽशि॑ष्टा: । आ॒प॒: । शिक्ष॑न्ती: । प॒च॒त॒ । सु॒ऽना॒था॒: ॥३.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
उतेव प्रभ्वीरुत संमितास उत शुक्राः शुचयश्चामृतासः। ता ओदनं दंपतिभ्यां प्रशिष्टा आपः शिक्षन्तीः पचता सुनाथाः ॥
स्वर रहित पद पाठउत्ऽइव । प्रऽभ्वी: । उत । सम्ऽमितास: । उत । शुक्रा: । शुचय: । च । अमृतास: । ता: । ओदनम् । दंपतिऽभ्याम् । प्रऽशिष्टा: । आप: । शिक्षन्ती: । पचत । सुऽनाथा: ॥३.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 27
भाषार्थ -
(उत इव) मानो (प्रभ्वीः) जल है तो प्रभूत, (उत) परन्तु (सं मितासः) कुम्भी में सम्यक्तया मापे हुए हैं, (उत) तथा कुम्भी के जल (शुक्राः शुचयः अमृतासः) शुद्ध, पवित्र और मृत्यु से बचाने वाले हैं। (ताः आपः) हे वे शुद्ध पवित्र जलो ! तुम (प्रशिष्टाः) मात्रा की दृष्टि से प्रशासित हुए, (सुनाथाः) उत्तम प्रकार से प्रतप्त होकर (दम्पतिभ्याम्) पति-पत्नी के लिये (ओदनम्) ओदन (शिक्षन्तीः) देते हुए (पचत) ओदन को पकाओ।
टिप्पणी -
[पृथिवी में जल हैं तो प्रभूत, परन्तु ओदन के परिपाक के लिये जल मापे हुए होने चाहियें। जल शुद्ध-पवित्र होने चाहियें। जल जीवन में महोपकारी हैं। शिक्षन्तीः = शिक्षति दानकर्मा (निघं० ३।२०)। सुनाथाः= सु + नाथृ (उपतापे)। मन्त्र में “आपः" पद की दृष्टि से बहुवचन और स्त्रीलिङ्ग में पद प्रयुक्त हुए हैं। वेदों में वर्णन कविता के शब्दों में प्रायः होते हैं। इसीलिये "आपः" पद सम्बुद्धि में प्रयुक्त हुआ है। जल अमृत हैं। जल का पीना तथा जल चिकित्सा आयुवर्धक हैं, इसलिये जल अमृत है]।