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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 24
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - आसुरी गायत्री
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
से॒दिरु॑प॒तिष्ठ॑न्ती मिथोयो॒धः परा॑मृष्टा ॥
स्वर सहित पद पाठसे॒दि: । उ॒प॒ऽतिष्ठ॑न्ती । मि॒थ॒:ऽयो॒ध: । परा॑ऽसृष्टा॥७.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
सेदिरुपतिष्ठन्ती मिथोयोधः परामृष्टा ॥
स्वर रहित पद पाठसेदि: । उपऽतिष्ठन्ती । मिथ:ऽयोध: । पराऽसृष्टा॥७.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 24
विषय - वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ -
वह [वेदवाणी] (उपतिष्ठन्ती) [विद्वानों के] समीप ठहरती हुई [वेदनिरोधक को] (सेदिः) महामारी आदि क्लेश, और (परामृष्टा) [विद्वानों से] परामर्श की गयी [विचारी गयी] वह (मिथोयोधः) [दुष्टों में] परस्पर संग्रामरूप होती है ॥२४॥
भावार्थ - पक्षपातरहित न्यायकारिणी वेदविद्या की प्रवृत्ति से दुराचारी लोग महाक्लेश पाते हैं ॥२४॥
टिप्पणी -
२४−(सेदिः) अ० २।१४।३। षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु−कि। निर्ऋतिः। विषादः (उपतिष्ठन्ती) विदुषां समीपे वर्तमाना (मिथोयोधः) युध संप्रहारे−घञ्। दुष्टानां परस्परयुद्धम् (परामृष्टा) मृश स्पर्शे, परापूर्वको विचारे−क्त। विचारिता विद्वद्भिः ॥