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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 55
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - प्राजापत्योष्णिक्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
क्षु॒रप॑विर्मृ॒त्युर्भू॒त्वा वि धा॑व॒ त्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठक्षु॒रऽप॑वि: । मृ॒त्यु: । भू॒त्वा । वि । धा॒व॒ । त्वम् ॥१०.९॥
स्वर रहित मन्त्र
क्षुरपविर्मृत्युर्भूत्वा वि धाव त्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठक्षुरऽपवि: । मृत्यु: । भूत्वा । वि । धाव । त्वम् ॥१०.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 55
विषय - वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ -
[हे वेदवाणी !] (त्वम्) तू [वेदनिन्दक के लिये] (क्षुरपविः) छुरा [कटार आदि] की धार [समान], (मृत्युः) मृत्युरूप (भूत्वा) होकर (वि) इधर-उधर (धाव) दौड़ ॥५५॥
भावार्थ - सत्य वैदिक धर्म के स्थापन में विद्वानों को सदा पूरा प्रयत्न करना चाहिये ॥५५॥
टिप्पणी -
५५−(क्षुरपविः) म० २०। शस्त्रधारा यथा (मृत्युः) (भूत्वा) (वि) विविधम् (धाव) शीघ्रं गच्छ (त्वम्) ॥