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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 34
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - साम्नी बृहती
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
असं॑ज्ञा ग॒न्धेन॒ शुगु॑द्ध्रि॒यमा॑णाशीवि॒ष उद्धृ॑ता ॥
स्वर सहित पद पाठअस॑म्ऽज्ञा । ग॒न्धेन॑ । शुक् । उ॒ध्द्रि॒यमा॑णा । आ॒शी॒वि॒ष: । उध्दृ॑ता ॥८.७॥
स्वर रहित मन्त्र
असंज्ञा गन्धेन शुगुद्ध्रियमाणाशीविष उद्धृता ॥
स्वर रहित पद पाठअसम्ऽज्ञा । गन्धेन । शुक् । उध्द्रियमाणा । आशीविष: । उध्दृता ॥८.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 34
विषय - वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ -
(गन्धेन) [वेदवाणी के] नाश से (असंज्ञा) असंगति [संसार में फूट] होती है, वह (उद्ध्रियमाणा) उखाड़ी जाती हुई (शुक्) शोक और (उद्धृता) उखाड़ी गयी (आशीविषः) फण में विषवाले [साँप के समान] है ॥३४॥
भावार्थ - वेदविद्या के नाश से संसार में फूट पड़कर बड़े-बड़े क्लेश होते हैं ॥३४॥
टिप्पणी -
३४−(असंज्ञा) असङ्गतिः। भेदः (गन्धेन) गन्ध अर्दने−अच्। नाशेन (शुक्) शोकः। (उद्ध्रियमाणा) उत्पाट्यमाना (आशीविषः) आङ्+अश भोजने−अच्, ङीप्। आश्यां फणे विषं यस्य सः। महाविषयुक्तः सर्पः (उद्धृता) उत्पाटिता ॥