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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 16
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    मे॒निः श॒तव॑धा॒ हि सा ब्र॑ह्म॒ज्यस्य॒ क्षिति॒र्हि सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मे॒नि: । श॒तऽव॑धा । हि । सा । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । क्षिति॑: । हि । सा ॥७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मेनिः शतवधा हि सा ब्रह्मज्यस्य क्षितिर्हि सा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मेनि: । शतऽवधा । हि । सा । ब्रह्मऽज्यस्य । क्षिति: । हि । सा ॥७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 16

    पदार्थ -
    (सा) वह [वेदवाणी] (हि) निश्चय करके (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्मचारियों के हानिकारक की (शतवधा) शतघ्नी [सैकड़ों को मारनेवाली] (मेनिः) वज्र, (सा हि) वह ही [उसकी] (क्षितिः) नाश शक्ति है ॥१६॥

    भावार्थ - जो मनुष्य वेदप्रचारकों को हानि पहुँचाता है, वह संसार की हानि कर के आप भी अनेक विपत्तियों में पड़ता है ॥१६॥

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