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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 11
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - आर्ची निचृत्पङ्क्तिः सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    तानि॒ सर्वा॒ण्यप॑ क्रामन्ति ब्रह्मग॒वीमा॒ददा॑नस्य जिन॒तो ब्रा॑ह्म॒णं क्ष॒त्रिय॑स्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तानि॑ । सर्वा॑णि । अप॑ । क्रा॒म॒न्ति॒ । ब्र॒ह्म॒ऽग॒वीम् । आ॒ऽददा॑नस्य । जि॒न॒त: । ब्रा॒ह्म॒णम् । क्ष॒त्रिय॑स्य ॥६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तानि सर्वाण्यप क्रामन्ति ब्रह्मगवीमाददानस्य जिनतो ब्राह्मणं क्षत्रियस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तानि । सर्वाणि । अप । क्रामन्ति । ब्रह्मऽगवीम् । आऽददानस्य । जिनत: । ब्राह्मणम् । क्षत्रियस्य ॥६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    (तानि सर्वाणि) ये सब (ब्रह्मगवीम्) वेदवाणी को (आददानस्य) छीननेवाले, (ब्राह्मणम्) ब्राह्मण [ब्रह्मचारी] को (जिनतः) सतानेवाले (क्षत्रियस्य) क्षत्रिय के (अप क्रामन्ति) चले जाते हैं ॥११॥

    भावार्थ - जो राजा के कुप्रबन्ध से वेदविद्या प्रचार से रुक जाती है, अविद्या के फैलने से वह राजा और उसका राज्य सब नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है ॥७-१०॥ १−मन्त्र ११ का मिलान ऊपर मन्त्र ५, ६ से करो ॥११॥ २−मन्त्र ७-११ महर्षि दयानन्दकृत, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका वेदोक्तधर्मविषय पृष्ठ १०२-३ में तथा संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण में व्यख्यात हैं ॥

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