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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 53
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
वै॑श्वदे॒वी ह्युच्यसे॑ कृ॒त्या कूल्ब॑ज॒मावृ॑ता ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्व॒ऽदे॒वी । हि ।उ॒च्यसे॑ । कृ॒त्या। कूल्ब॑जम् । आऽवृ॑ता॥१०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वदेवी ह्युच्यसे कृत्या कूल्बजमावृता ॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वऽदेवी । हि ।उच्यसे । कृत्या। कूल्बजम् । आऽवृता॥१०.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 53
विषय - वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ -
(हि) क्योंकि (वैश्वदेवी) सब विद्वानों की हित करनेवाली तू [वेदनिन्दक के लिये] (कृत्या) हिंसारूप और (कूल्बजम्) भूमि पर दाह उपजानेवाली वस्तुरूप (उच्यसे) कही जाती है [जब कि तू] (आवृता) रोक दी गयी हो ॥५३॥
भावार्थ - जो विद्वान् वेदवाणी का सहारा लेते हैं, वे पाखण्डी उपद्रवियों के नाश करने में समर्थ होते हैं ॥५३॥ इस मन्त्र का मिलान ऊपर मन्त्र १२ से करो ॥
टिप्पणी -
५३−(वैश्वदेवी) विश्वदेव−अण्, ङीप्। सर्वविदुषां हितकरी (हि) यस्मात् कारणात् (उच्यसे) कथ्यसे। शेषं गतम्−म० १२ ॥