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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 63
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
ब्र॑ह्म॒ज्यं दे॑व्यघ्न्य॒ आ मूला॑दनु॒संद॑ह ॥
स्वर सहित पद पाठब्र॒ह्म॒ऽज्यम् । दे॒वि॒ । अ॒घ्न्ये॒ । आ । मूला॑त् । अ॒नु॒ऽसंद॑ह: ॥११.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मज्यं देव्यघ्न्य आ मूलादनुसंदह ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मऽज्यम् । देवि । अघ्न्ये । आ । मूलात् । अनुऽसंदह: ॥११.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 63
विषय - ब्रह्मचारी के हत्यारों कें दोषों का उपदेश।
पदार्थ -
(देवि) हे देवी ! [उत्तम गुणवाली] (अघ्न्ये) हे अवध्य ! [न मारने योग्य, प्रबल वेदवाणी] (ब्रह्मज्यम्) ब्रह्मचारियों के हानिकारक को (आ मूलात्) जड़ से (अनुसंदह) जलाये जा ॥६३॥
भावार्थ -
राजा को उचित है कि वेदव्यवस्था के अनुसार ब्रह्मचारीयों कें हत्या करने वालें अधर्मी एवं वेदविरोधी को कारावास का दण्ड देकर समाज के उत्थान हेतु अग्नि के भाँति नष्ट करें॥६३, ६४॥
(यह इसलिए है क्योंकि सन्यासी का सन्यास लेने के पश्चात उनके संरक्षण हेतु कोई परिजन नहीं होतें।)
टिप्पणी -
६३, ६४−(ब्रह्मज्यम्) म० १५। ब्रह्मचारिणां हानिकारकम् (देवि) हे दिव्यगुणवति (अघ्न्ये) हे अहन्तव्ये (आ मूलात्) मूलमभिव्याप्य (अनुसंदह) निरन्तरं भस्मीकुरु (यथा) येन प्रकारेण (अयात्) अय गतौ−लेट्। गच्छेत् (यमसदनात्) सांहितिको दीर्घः। राज्ञो न्यायगृहात् (पापलोकान्) पापिनां देशान्। कारागाराणि (परावतः) अ० ३।४।५। दूरगतान् ॥