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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 31
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - याजुषी त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
वि॒षं प्र॒यस्य॑न्ती त॒क्मा प्रय॑स्ता ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒षम् । प्र॒ऽयस्य॑न्ती । त॒क्मा । प्रऽय॑स्ता ॥८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
विषं प्रयस्यन्ती तक्मा प्रयस्ता ॥
स्वर रहित पद पाठविषम् । प्रऽयस्यन्ती । तक्मा । प्रऽयस्ता ॥८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 31
विषय - वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ -
वह [वेदवाणी] (प्रयस्यन्ती) क्लेश में पड़ती हुई [वेदविरोधी को] (विषम्) विष, और (प्रयस्ता) क्लेश में डाली गयी (तक्मा) जीवन के कष्टदायक [ज्वररूप] होती है ॥३१॥
भावार्थ - तपस्वी वेदानुगामियों का दुःखदायी पुरुष अज्ञान बढ़ाकर घोर नरक में पड़ता है ॥३१॥
टिप्पणी -
३१−(विषम्) (प्रयस्यन्ती) प्रयासं क्लेशं सहमाना (तक्मा) अ० १।२५।१। कृच्छ्रजीवनकारी ज्वरो यथा (प्रयस्ता) आयासं क्लेशं प्राप्ता ॥