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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - साम्नी पङ्क्तिः सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    तामा॒ददा॑नस्य ब्रह्मग॒वीं जि॑न॒तो ब्रा॑ह्म॒णं क्ष॒त्रिय॑स्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताम् । आ॒ऽददा॑नस्य । ब्र॒ह्म॒ऽग॒वीम् । जि॒न॒त: । ब्रा॒ह्म॒णम् । क्ष॒त्रिय॑स्य ॥५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तामाददानस्य ब्रह्मगवीं जिनतो ब्राह्मणं क्षत्रियस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताम् । आऽददानस्य । ब्रह्मऽगवीम् । जिनत: । ब्राह्मणम् । क्षत्रियस्य ॥५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (ताम्) उस (ब्रह्मगवीम्) वेदवाणी को (आददानस्य) छीननेवाले, (ब्राह्मणम्) ब्राह्मण [ब्रह्मचारी] को (जिनतः) सतानेवाले (क्षत्रियस्य) क्षत्रिय की ॥५॥

    भावार्थ - जिस वेदवाणी की प्रवृत्ति से संसार में सब प्राणी आनन्द पाते हैं, उस वेदवाणी को जो कोई अन्यायी राजा प्रचार से रोकता है, उसके राज्य में मूर्खता फैलती है और वह धर्महीन राजा संसार में निर्बल और निर्धन हो जाता है ॥१-६॥

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