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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 25
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - साम्न्यनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
श॑र॒व्या॒ मुखे॑ऽपिन॒ह्यमा॑न॒ ऋति॑र्ह॒न्यमा॑ना ॥
स्वर सहित पद पाठश॒र॒व्या᳡ । मुखे॑ । अ॒पि॒ऽन॒ह्यमा॑ने । ऋति॑: । ह॒न्यमा॑ना: ॥७.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
शरव्या मुखेऽपिनह्यमान ऋतिर्हन्यमाना ॥
स्वर रहित पद पाठशरव्या । मुखे । अपिऽनह्यमाने । ऋति: । हन्यमाना: ॥७.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 25
विषय - वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ -
(मुखे अपिनह्यमाने) मुख बाँधे जाने पर वह [वेदवाणी] [वेदनिरोधक के लिये] (शरव्या) बाणविद्या में चतुर सेना [के समान] और (हन्यमाना) ताड़ी जाती हुई वह (ऋतिः) आपत्तिरूप होती है ॥२५॥
भावार्थ - विद्वानों को वेदवाणी के प्रचार से रोकनेवाले पुरुष अज्ञान के कारण विपत्तियाँ झेलते हैं ॥२५॥
टिप्पणी -
२५−(शरव्या) अ० ३।१९।८। शरु−यत्। शरौ वाणविद्यायां कुशला सेना (मुखे) (अपिनह्यमाने) अपवध्यमाने (ऋतिः) ऋ हिंसायाम्−क्तिन्। निर्ऋतिः। आपत्तिः (हन्यमाना) ताड्यमाना ॥