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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 54
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - प्राजापत्योष्णिक्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
ओष॑न्ती स॒मोष॑न्ती॒ ब्रह्म॑णो॒ वज्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठओष॑न्ती । स॒म्ऽओष॑न्ती । ब्रह्म॑ण: । वज्र॑: ॥१०.८॥
स्वर रहित मन्त्र
ओषन्ती समोषन्ती ब्रह्मणो वज्रः ॥
स्वर रहित पद पाठओषन्ती । सम्ऽओषन्ती । ब्रह्मण: । वज्र: ॥१०.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 54
विषय - वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ -
(ओषन्ती) जलाती हुई, (समोषन्ती) भस्म कर देती हुई, तू [वेदनिन्दक के लिये] (ब्रह्मणः) ब्रह्म [परमेश्वर] का (वज्रः) वज्ररूप है ॥५४॥
भावार्थ -
वेदानुयायी सत्यवीर पुरुष समाज हेतु वज्र बनकर प्रशासन का सहयोग करें जिससे वेद प्रतिकूल अत्याचारी व्यक्ति का उपद्रव अग्नि के भाँति नाश हों ॥५४॥
टिप्पणी -
५४−(ओषन्ती) उष दाहे−शतृ। दहन्ती (समोषन्ती) सम्यग्भस्मीकुर्वती (ब्रह्मणः) परमेश्वरस्य (वज्रः) शस्त्रं यथा ॥