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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 22
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - साम्नी बृहती सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    स॑र्वज्या॒निः कर्णौ॑ वरीव॒र्जय॑न्ती राजय॒क्ष्मो मेह॑न्ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒र्व॒ऽज्या॒नि: । कर्णौ॑ । व॒री॒व॒र्जय॑न्ती । रा॒ज॒ऽय॒क्ष्म: । मेह॑न्ती ॥७.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सर्वज्यानिः कर्णौ वरीवर्जयन्ती राजयक्ष्मो मेहन्ती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सर्वऽज्यानि: । कर्णौ । वरीवर्जयन्ती । राजऽयक्ष्म: । मेहन्ती ॥७.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 22

    पदार्थ -
    (मेहन्ती) [विद्वानों को] सींचती हुई और [वेदविरोधक के] (कर्णौ) दो विज्ञानों [अभ्युदय और निःश्रेयस अर्थात् तत्त्वज्ञान और मोक्षज्ञान] को (वरीवर्जयन्ती) सर्वथा रोकती हुई [वेदवाणी] [उसके लिये] (सर्वज्यानिः) सब हानि करनेवाले (राजयक्ष्मः) राजरोग [के समान] होती है ॥२२॥

    भावार्थ - जब संसार में वेदों का विज्ञान बढ़ता है, तब पाखण्ड मत नष्ट हो जाता है, जैसे उपाय न करने पर राजरोग से रोगी का नाश हो जाता है ॥२२॥ इस मन्त्र का मिलान−अथर्व० १२।४।६। से करो ॥

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