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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - साम्नी त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    ओज॑श्च॒ तेज॑श्च॒ सह॑श्च॒ बलं॑ च॒ वाक्चे॑न्द्रि॒यं च॒ श्रीश्च॒ धर्म॑श्च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ओज॑: । च॒ । तेज॑: । च॒ । सह॑: । च॒ । बल॑म् । च॒ । वाक् । च॒ । इ॒न्द्रि॒यम् । च॒ । श्री: । च॒ । धर्म॑: । च॒ ॥६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ओजश्च तेजश्च सहश्च बलं च वाक्चेन्द्रियं च श्रीश्च धर्मश्च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ओज: । च । तेज: । च । सह: । च । बलम् । च । वाक् । च । इन्द्रियम् । च । श्री: । च । धर्म: । च ॥६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (च) और (ओजः) पराक्रम, (च) और (तेजः) तेज [प्रगल्भता, निर्भयता], (च) और (सहः) सहन सामर्थ्य, (च) और (बलम्) बल [शरीर की दृढ़ता] (च) और (वाक्) विद्या, (च) और (इन्द्रियम्) इन्द्रिय [मन सहित पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय], (च) और (श्रीः) श्री [लक्ष्मी, सम्पत्ति, अर्थात् चक्रवर्ति राज्य की सामग्री], (च) और (धर्मः) धर्म [वेदोक्त पक्षपातरहित न्याय का आचरण] ॥७॥

    भावार्थ - जो राजा के कुप्रबन्ध से वेदविद्या प्रचार से रुक जाती है, अविद्या के फैलने से वह राजा और उसका राज्य सब नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है ॥७-१०॥

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