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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - आसुर्नुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
ब्रह्म॑ पदवा॒यं ब्रा॑ह्म॒णोऽधि॑पतिः ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑ । प॒द॒ऽवा॒यम् । ब्रा॒ह्म॒ण: । अधि॑ऽपति: ॥५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्म पदवायं ब्राह्मणोऽधिपतिः ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्म । पदऽवायम् । ब्राह्मण: । अधिऽपति: ॥५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
विषय - वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ -
(ब्रह्म) वेद [ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद] [जिस वेदवाणी का] (पदवायम्) प्राप्तियोग्य ज्ञान और (ब्राह्मणः) ब्रह्म [ब्रह्माण्ड का जाननेवाला] परमेश्वर [जिसका] (अधिपतिः) अधिपति [परम स्वामी] है ॥४॥
भावार्थ - जिस वेदवाणी की प्रवृत्ति से संसार में सब प्राणी आनन्द पाते हैं, उस वेदवाणी को जो कोई अन्यायी राजा प्रचार से रोकता है, उसके राज्य में मूर्खता फैलती है और वह धर्महीन राजा संसार में निर्बल और निर्धन हो जाता है ॥१-६॥
टिप्पणी -
४−(ब्रह्म) ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यो वेदः (पदवायम्) पद गतौ स्थैर्ये च−अच्+वा गतिगन्धनयोः−घञ् युक् च। प्राप्तव्यं ज्ञानम् (ब्राह्मणः) ब्रह्म−अण्। ब्रह्म ब्रह्माण्डं सर्वं जगत् वेत्ति यः। सर्वसंसारज्ञः परमेश्वरः (अधिपतिः) अधिराजः ॥