Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 66
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा ती॒क्ष्णेन॑ क्षु॒रभृ॑ष्टिना ॥
स्वर सहित पद पाठवज्रे॑ण । श॒तऽप॑र्वणा । ती॒क्ष्णेन॑ । क्षु॒रऽभृ॑ष्टिना ॥११.५॥
स्वर रहित मन्त्र
वज्रेण शतपर्वणा तीक्ष्णेन क्षुरभृष्टिना ॥
स्वर रहित पद पाठवज्रेण । शतऽपर्वणा । तीक्ष्णेन । क्षुरऽभृष्टिना ॥११.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 66
विषय - वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ -
(शतपर्वणा) सैकड़ों जोड़वाले, (तीक्ष्णेन) तीक्ष्ण, (क्षुरभृष्टिना) छुरे की सी धारवाले (वज्रेण) वज्र से ॥६६॥,
भावार्थ - वेदानुयायी धर्मात्मा राजा वेदविरोधी दुष्टाचारियों को प्रचण्ड दण्ड देवे ॥६५-६७॥ मन्त्र ६५ का मिलान मन्त्र ६० से करो ॥
टिप्पणी -
६५-६७−(एव) अनेन प्रकारेण (त्वम्) (देवि) म० ६३ (अघ्न्ये) म० ६३। अन्यद् गतम्−म० ६०। (वज्रेण) (शतपर्वणा) बहुग्रन्थिना (तीक्ष्णेन) तीव्रेण (क्षुरभृष्टिना) भ्रस्ज पाके, यद्वा भृशु अधःपतने−क्तिन्। क्षुरवत्तीक्ष्णधारेण (प्र प्र) अतिशयेन (स्कन्धान्) शरीरावयवविशेषान् (शिरः) मस्तकं (जहि) नाशय ॥