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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 57
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
आ॒दाय॑ जी॒तं जी॒ताय॑ लो॒केमुष्मि॒न्प्र य॑च्छसि ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽदाय॑ । जी॒तम् । जी॒ताय॑ । लो॒के । अ॒मुष्मि॑न् । प्र । य॒च्छ॒सि॒ ॥१०.११॥
स्वर रहित मन्त्र
आदाय जीतं जीताय लोकेमुष्मिन्प्र यच्छसि ॥
स्वर रहित पद पाठआऽदाय । जीतम् । जीताय । लोके । अमुष्मिन् । प्र । यच्छसि ॥१०.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 57
विषय - वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ -
[हे वेदवाणी !] (जीतम्) हानिकारक पुरुष को (आदाय) लेकर (जीताय) हान किये गये पुरुष के वश में (अमुष्मिन् लोके) उस लोक में [आगामी समय वा जन्म में] (प्र यच्छसि) तू देती है ॥५७॥
भावार्थ - जो कोई वेदविरोधी वेदानुयायी को क्लेश देता है, वह परमेश्वरनियम से इस जन्म वा पर जन्म में उस सत्पुरुष के अधीन होता है, अर्थात् सत्य धर्म का सदा विजय होता है ॥५७॥
टिप्पणी -
५७−(आदाय) गृहीत्वा (जीतम्) ज्या वयोहानौ कर्तरि−क्त, तकारस्य नत्वाभावः। हानिकर्तारम् (जीताय) कर्मणि−क्त। हानिं गताय पुरुषाय (लोके) संसारे जन्मनि वा (अमुष्मिन्) परस्मिन् (प्र यच्छसि) ददासि ॥