Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 61
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
त्वया॒ प्रमू॑र्णं मृदि॒तम॒ग्निर्द॑हतु दु॒श्चित॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वया॑ । प्रऽमू॑र्णम् । मृ॒दि॒तम् । अ॒ग्नि: । द॒ह॒तु॒ । दु॒:ऽचित॑म् ॥१०.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वया प्रमूर्णं मृदितमग्निर्दहतु दुश्चितम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वया । प्रऽमूर्णम् । मृदितम् । अग्नि: । दहतु । दु:ऽचितम् ॥१०.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 61
विषय - वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ -
[हे वेदवाणी !] (त्वया) तुझ करके (प्रमूर्णम्) बाँध लिये गये, (मृदितम्) कुचले गये (दुश्चितम्) अनिष्ट चिन्तक को (अग्निः) आग (दहतु) जला डाले ॥६१॥
भावार्थ - वेदविरोधी दुराचारी पुरुष को न्यायव्यवस्था से जला कर भस्म कर डाले ॥६१॥
टिप्पणी -
६१−(त्वया) वेदवाण्या (प्रमूर्णम्) मुर्व बन्धने−क्त। प्रकर्षेण बद्धम् (मृदितम्) मृद क्षोदे−क्त। चूर्णितम् (अग्निः) प्रत्यक्षः (दहतु) (दुश्चितम्) चिती संज्ञाने−क्विप्। अनिष्टचिन्तकम् ॥