अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 54
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - द्विपदार्षी गायत्री
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
भव॑द्वसुरि॒दद्व॑सुः सं॒यद्व॑सुरा॒यद्व॑सु॒रिति॒ त्वोपा॑स्महे व॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठभव॑त्ऽवसु: । इ॒दत्ऽव॑सु: । सं॒यत्ऽव॑सु: । आ॒यत्ऽव॑सु: । इति॑ । त्वा॒ । उप॑ । आ॒स्म॒हे॒ । व॒यम् ॥९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
भवद्वसुरिदद्वसुः संयद्वसुरायद्वसुरिति त्वोपास्महे वयम् ॥
स्वर रहित पद पाठभवत्ऽवसु: । इदत्ऽवसु: । संयत्ऽवसु: । आयत्ऽवसु: । इति । त्वा । उप । आस्महे । वयम् ॥९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 54
विषय - परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ -
हे परमेश्वर ! (वयम्) हम (त्वा) आपको (भवद्वसुः) समस्त उत्पन्न होने हारे चर अचर पदार्थों में वसने हारे सर्वान्तर्यामी ‘भवद्-वसु’ (इदद्वसुः) परम ऐश्वर्यवान् सूर्यादि पदार्थों में भी वास करने हारे, ‘इदद् वसु’ (संयद्वसुः) समस्त ऐश्वर्य को एकत्र एक काल में धारण करने वाले ‘संयद्-वसु’ और (आयद् वसुः) समस्त लोकों को वश करने हारे. केन्द्रस्थ महा सूर्यों के भी भीतर शक्ति रूप से बसने वाले ‘आयद्-वसु’ (इति) इन नामों, गुणों और रूपों से भी (त्वा उपास्महे) तेरी उपासना करते हैं।
टिप्पणी -
(। ०। ०॥) उभयोर्विद्वोः स्थाने ‘नमस्ते अस्तु’ इति अन्नाद्येने’तच मन्त्रद्वयं वैदिकैः परिपठ्यते।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ५२, ५३ प्राजापत्यानुष्टुभौ, ५४ आर्षी गायत्री, शेषास्त्रिष्टुभः। पञ्चर्चं षष्ठं पर्यायसूक्तम्॥
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