अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 6
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
तं व॒त्सा उप॑ तिष्ठ॒न्त्येक॒शीर्षा॑णो यु॒ता दश॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । व॒त्सा: । उप॑ । ति॒ष्ठ॒न्ति॒ । एक॑ऽशीर्षाण: । यु॒ता: । दश॑ ॥४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वत्सा उप तिष्ठन्त्येकशीर्षाणो युता दश ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । वत्सा: । उप । तिष्ठन्ति । एकऽशीर्षाण: । युता: । दश ॥४.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
विषय - रोहित, परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ -
(तम्) उस आत्मा के समीप (वत्साः) दश पुत्र जिस प्रकार (एकशीर्षाणः) एक अपने शिरो भाग पर स्थित मुख्य गृहपति या पिता के अधीन रहते हैं उसी प्रकार (दश वत्साः) दश वत्स वास करने हारे प्राण (एकशीर्षाणः) एक शिरो भाग में विद्यमान होकर (उप तिष्टन्ति) उसके अधीन होकर रहते हैं। परमात्मपक्ष में—वायु, आदित्य, दिशा, ओषधि, वनस्पति, चन्द्रमा, मृत्यु, आपः आदि दशों प्राणों के मूलपदार्थ लेने या दश दिशाएं दश वत्स हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मं रोहितादित्यो देवता। त्रिष्टुप छन्दः। षट्पर्यायाः। मन्त्रोक्ता देवताः। १-११ प्राजापत्यानुष्टुभः, १२ विराङ्गायत्री, १३ आसुरी उष्णिक्। त्रयोदशर्चं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥
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