यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 10
र॒यिश्च॑ मे॒ राय॑श्च मे पु॒ष्टं च॑ मे॒ पुष्टि॑श्च मे वि॒भु च॑ मे प्र॒भु च॑ मे पू॒र्णं च॑ मे पू॒र्णत॑रं च मे॒ कुय॑वं च॒ मेऽक्षि॑तं च॒ मेऽन्नं॑ च॒ मेऽक्षु॑च्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥१०॥
स्वर सहित पद पाठर॒यिः। च॒। मे॒। रायः॑। च॒। मे॒। पु॒ष्टम्। च॒। मे॒। पुष्टिः॑। च॒। मे॒। वि॒भ्विति॑ वि॒ऽभु। च॒। मे॒। प्र॒भ्विति॑ प्र॒ऽभु। च॒। मे॒। पू॒र्णम्। च॒। मे॒। पू॒र्णत॑र॒मिति॑ पू॒र्णऽत॑रम्। च॒। मे॒। कुय॑वम्। च॒। मे॒। अक्षि॑तम्। च॒। मे॒। अन्न॑म्। च॒। मे॒। अक्षु॑त्। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥१० ॥
स्वर रहित मन्त्र
रयिश्च मे रायश्च मे पुष्टञ्च मे पुष्टिश्च मे विभु च मे प्रभु च मे पूर्णञ्च मे पूर्णतरञ्च मे कुयवञ्च मे क्षितञ्च मे न्नञ्च मे क्षुच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
रयिः। च। मे। रायः। च। मे। पुष्टम्। च। मे। पुष्टिः। च। मे। विभ्विति विऽभु। च। मे। प्रभ्विति प्रऽभु। च। मे। पूर्णम्। च। मे। पूर्णतरमिति पूर्णऽतरम्। च। मे। कुयवम्। च। मे। अक्षितम्। च। मे। अन्नम्। च। मे। अक्षुत्। च। मे। यज्ञेन। कल्पन्ताम्॥१०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
मे रयिश्च मे रायश्च मे पुष्टं च मे पुष्टिश्च मे विभु च मे प्रभु च मे पूर्णं च मे पूर्णतरं च मे पूर्णतरं च मे कुयवं च मेऽक्षितं च मेऽन्नं च मेऽक्षुच्च यज्ञेन कल्पन्ताम्॥१०॥
पदार्थः
(रयिः) विद्याश्रीः (च) पुरुषार्थः (मे) (रायः) प्रशस्तलक्ष्म्यः (च) पक्वान्नादिकम् (मे) (पुष्टम्) (च) आरोग्यम् (मे) (पुष्टिः) पुष्टिकरणम् (च) सुपथ्यम् (मे) (विभु) अखिलविषयेषु व्याप्तं मन आदि (च) परमात्मध्यानम् (मे) (प्रभु) समर्थम् (च) सर्वसामर्थ्यम् (मे) (पूर्णम्) अलङ्कारि (च) एतत्साधनम् (मे) (पूर्णतरम्) अतिशयेन पूर्णमाभरणादिकम् (च) सर्वमुपकरणम् (मे) (कुयवम्) कुत्सितैर्यवैर्वियुक्तम् (च) व्रीह्यादिकम् (मे) (अक्षितम्) क्षयरहितम् (च) तृप्तिः (मे) (अन्नम्) अत्तुं योग्यम् (च) व्यञ्जनम् (मे) (अक्षुत्) क्षुधाराहित्यम् (च) तृषादिराहित्यम् (मे) (यज्ञेन) प्रशस्तधनप्रापकेणेश्वरेण (कल्पन्ताम्)॥१०॥
भावार्थः
मनुष्यैः परमपुरुषार्थेन जगदीश्वरभक्तिप्रार्थनाभ्यां च विद्यादिकं धनं लब्ध्वा सर्वोपकारः साधनीयः॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
(मे) मेरी (रयिः) विद्या की कान्ति (च) और पुरुषार्थ (मे) मेरे (रायः) प्रशंसित धन (च) और पक्वान्न आदि (मे) मेरे (पुष्टम्) पुष्ट पदार्थ (च) और आरोग्यपन (मे) मेरी (पुष्टिः) पुष्टि (च) और पथ्य भोजन (मे) मेरा (विभु) सब विषयों मे व्याप्त मन आदि (च) परमात्मा का ध्यान (मे) मेरा (प्रभु) समर्थ व्यवहार (च) और सब सामर्थ्य (मे) मेरा (पूर्णम्) पूर्ण काम का करना (च) और उस का साधन (मे) मेरे (पूर्णतरम्) आभूषण, गौ, भैंस, घोड़ा, छेरी तथा अन्न आदि पदार्थ (च) और सब का उपकार करना (मे) मेरा (कुयवम्) निन्दित यवों से न मिला हुआ अन्न (च) और धान चावल आदि अन्न (मे) मेरा (अक्षितम्) अक्षय पदार्थ (च) और तृप्ति (मे) मेरा (अन्नम्) खाने योग्य अन्न (च) और मसाला आदि तथा (मे) मेरी (अक्षुत्) क्षुधा की तृप्ति (च) और प्यास आदि की तृप्ति ये सब पदार्थ (यज्ञेन) प्रशंसित धनादि देने वाले परमात्मा से (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें॥१०॥
भावार्थ
मनुष्यों को परम पुरुषार्थ और ईश्वर की भक्ति, प्रार्थना से विद्या आदि धन पाकर सब का उपकार सिद्ध करना चाहिये॥१०॥
विषय
ऐश्वर्य, पुष्टि, पूर्णता, अन्न और क्षुधादि की निवृत्ति, सुकाल की प्राप्ति ।
भावार्थ
( रयिः च ) विद्या और लक्ष्मी, ( राय: च ) उत्तम ऐश्वर्य, मणि, मुक्ता आदि पदार्थ, (पुष्टं च ) शरीर की हृष्ट-पुष्टता, आरोग्य, ऐश्वर्य की वृद्धि, ( पुष्टिः च ) पुष्टि और सुपथ्य होना, (विभु च ) विविध पदार्थों की प्राप्ति, परमात्मा का ध्यान और ( प्रभु च ) सब पर प्रभुता, ( पूर्ण च) पूर्णता, धन पुत्र आदि से भरे पूरे रहना, (पूर्णतरं च) और भी अधिक ऐश्वर्य बढ़ना, ( कुयवं च ) कुत्सित यव आदि क्षुद्र जाति के धान्य, ( अक्षितं च ) क्षयरहित अन्न, शालि आदि धान्य ( अन्नं च ) गेहूं आदि अन्न, ( क्षुत् च ) भूख का अच्छा लगना और ( अक्षुत् च ) भोजन द्वारा भूख का न रहना, उसका अन्न द्वारा मिट जाना, ये सब पदार्थ ( मे ) मुझे ( यज्ञेन ) यज्ञ और राजा प्रजा के परस्पर संग से प्राप्त हों ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आत्मा । निचृत् शक्वरी । धैवतः ॥
विषय
रयि- अक्षुत्
पदार्थ
१. गतमन्त्र का प्रारम्भ 'ऊर्क्' = प्राणशक्ति की प्रार्थना से हुआ था, प्रस्तुत मन्त्र 'रयि' की प्रार्थना से प्रारम्भ होता है। ('आदित्यो ह वै प्राणो रयिरेव चन्द्रमा') = प्रश्नोपनिषद् के इस वाक्य में प्राण और रयि का सम्बन्ध सुव्यक्त है। इन देवों के मेल से ही सृष्टि की उत्पत्ति होती है। (‘रयिं सोमो रयिपतिर्दधातु') = इस वाक्य से रयि का सोम से सम्बन्ध है। मुझमें जहाँ (ऊर्क्) = प्राण हो वहाँ (रयिः) = सोमशक्ति भी हो। इस रयि के साथ रायश्च मे मुझे वे धन भी प्राप्त हों, जिन्हें मैं उदारतापूर्वक दान कर सकूँ [राति दानकर्मणः] । २. (पुष्टं च मे) = मुझे धन का पोषण प्राप्त हो । जहाँ मैं आर्थिक दृष्टि से निर्बल न होऊँ वहाँ (पुष्टिश्च मे) = मुझे शरीर का पोषण भी प्राप्त हो। धन विलास द्वारा मेरी शारीरिक निर्बलता का कारण न बन जाए। ३. धन व शारीरिक बल प्राप्त करके (विभु च मे) = मुझे व्याप्ति-सामर्थ्य प्राप्त हो । मेरा हृदय विशाल हो और साथ ही प्रभु च मे मुझे प्रभावशक्ति भी प्राप्त हो। मैं प्रभुत्व करने में समर्थ होऊँ। ४. (पूर्णं च मे) = इस प्रकार मैं धन व पुत्रादि की पूर्णतावाला होऊँ और (पूर्णतरं च मे) गवादि पशुओं की पूर्णता भी मुझे प्राप्त हो । ५. (कुयवं च मे) = यह [कु] पृथिवी - सम्बन्धी (यव) = जौ मेरे हों तथा (अक्षितं च मे) = जिनसे नाश नहीं होता ऐसे धान्य मुझे प्राप्त हों । ६. (अन्नं च मे) = मुझे सब आवश्यक अन्न प्राप्त हों तथा (अक्षुत् च मे) = मैं भूखा न रह जाऊँ, मैं अन्न से तृप्ति का अनुभव करूँ।
भावार्थ
भावार्थ- मुझमें रयिशक्ति हो तथा दान देने योग्य धन हो, मुझे धन व शरीर का पोषण प्राप्त हो। मैं अन्न का सेवन करूँ और भूखा न रह जाऊँ।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी परम पुरुषार्थ करावा. ईश्वरभक्ती व प्रार्थना करून विद्या इत्यादी धन प्राप्त करावे व सर्वांवर उपकार करावा.
विषय
पुनश्च, पुढील मंत्रात तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (मे) माझी (रवि:) विद्यारुप संपदा (च) आणि (ती मिळविण्यासाठी होणारा) पुरुषार्थ वा श्रम तसेच (मे) माझे (राय:) अर्जित केलेले धन (च) आणि पक्वान्न आदी पदार्थ (माझ्यासाठी पुष्टिकर व्हावेत) (मे) माझे (पुष्टम्) पुष्ट (वा शक्तिदायक) पदार्थ (च) आणि आरोग्य तसेच (मे) माझी (पुष्टि:) त्याद्वारे मिळविलेली शक्ती (च) आणि पथ्यवार भोजन (माझ्यासाठी हितकर व्हावे) (मे) माझे (विभु:) सर्व विषयात भ्रमण करणारे मन आदी इंद्रिये (च) आणि परमेश्वराचे ध्यान, तसेच (मे) माझी (प्रभु:) सर्व कार्यें (च) आणि सर्व यश (हितकर व्हावे) (मे) माझ्या (पूर्णम्) कार्यपूर्तीचे सामर्थ्य (च) आणि त्यासाठी आवश्यक साधने तसेच (मे) माझे आभूषण, गाय, म्हैस, घोडा, शेळी आदी पशू व अन्न आदी भोज्य पदार्थ (च) आणि त्याद्वारा सर्वांचे भले करण्याची माझी वृत्ती (सदैव स्थिर व दृढ व्हावी) (मे) माझे (कुयवम्) निंदनीय वा निकृष्ट यवापासून मुक्त असलेले स्वच्छ धान्य (च) आणि साळी, भात आदी अन्नादी पदार्थ तसेच (मे) माझे (अक्षितम्) नष्ट होणारे पदार्थ (च) आणि त्याद्वारे मिळणारे समाधान (अखंड वा निरंतर राहो) (मे) माझे (अन्न) अन्न (च) आणि (ते तयार करण्यासाठी आवश्यक) मसाले आदी पदार्थ तसेच (मे) मला मिळणारी (अक्षुत) क्षुधातृप्ती (च) आणि तहान भागविणारे जल आदी पदार्थ (यज्ञेन) उत्तम धन देणार्या परमेश्वराच्या दयेने मला प्राप्त व्हावेत (वा वृद्धिंगत व्हावेत) ॥10॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांनी परम पुरूषार्थ करीत ईश्वराची भक्ती आणि प्रार्थना करावी (केवळ प्रार्थना करीत बसू नये, त्यासोबत श्रम, उद्यमदेखील अवश्य करावे) प्रार्थना आणि पुरुषार्थ याद्वारे विद्या आदी धनप्राप्त करून सर्वांना सहकार्य करावे (सर्वांच्या कल्याणासाठी झटावे) ॥10॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May the wealth of knowledge and enterprise, my property and cooked food, ray prosperity and health, my mind the master of all topics and Gods contemplation, my entire dealings and power, my accomplishment cows, buffaloes, horses* and service of mankind, my pure food grains and rice, my freedom from hunger and thirst, my food and its spices, my satiety in food and thirst prosper through the kindness of God.
Meaning
My wealth of knowledge and power of action, my wealth of possessions and all round prosperity, my health and growth, our public health and nourishment, my mental expansion and intellectual growth, my self- mastery and meditation, my fulfilment and its relevance to life, my worldly advancement and philanthropy, my management of damage and pollution of crops, my foods and my delicacies, and our management of hunger and thirst and shortages, may all these grow and be strong and auspicious for all by yajna.
Translation
May my riches and my wealth, my growth and my development, my fame and my power, my fullness and my overflow, my coarse foodgrains and my unexhausting stock, my food and my freedom from hunger be secured by means of sacrifice. (1)
Notes
Akşitam, क्षयहीन: धान्यसंग्रह:, unexhausting stock of food-grains. Aksut, क्षुत् क्षुधा तस्याः अभावः, freedom from hunger.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–(মে) আমার (রয়িঃ) বিদ্যার কান্তি (চ) এবং পুরুষার্থ (মে) আমার (রায়ঃ) প্রশংসিত ধন (চ) এবং পক্বান্নাদি (মে) আমার (পুষ্টম্) পুষ্ট পদার্থ (চ) এবং আরোগ্যতা (মে) আমার (পুষ্টিঃ) পুষ্টি (চ) এবং পথ্য-ভোজন (মে) আমার (বিভু) সকল বিষয়ে ব্যাপ্ত মনাদি (চ) পরমাত্মার ধ্যান (মে) আমার (প্রভু) সমর্থ ব্যবহার (চ) এবং সব সামর্থ্য (মে) আমার (পূর্ণম্) পূর্ণ কর্ম করা (চ) এবং তাহার সাধন (মে) আমার (পূর্ণতরম্) আভূষণ, গো, মহিষ, অশ্ব তথা অন্নাদি পদার্থ (চ) এবং সকলের উপকার করা (মে) আমার (কুয়বম্) নিন্দিত যব দ্বারা অমিশ্রিত অন্ন (চ) এবং ধান, চাউল আদি অন্ন (মে) আমার (অক্ষিতম্) অক্ষয় পদার্থ (চ) এবং তৃপ্তি (মে) আমার (অন্নম্) খাইবার যোগ্য অন্ন (চ) এবং মশালাদি তথা (মে) আমার (অক্ষুৎ) ক্ষুধার তৃপ্তি (চ) এবং পিপাসাদির তৃপ্তি এই সমস্ত পদার্থ (য়জ্ঞেন) প্রশংসিত ধনাদি প্রদাতা পরমেশ্বর দ্বারা (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক্ ॥ ১০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগকে পরম পুরুষার্থ এবং ঈশ্বরের ভক্তি প্রার্থনা দ্বারা বিদ্যাদি ধন পাইয়া সকলের উপকার সিদ্ধ করা উচিত ॥ ১০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
র॒য়িশ্চ॑ মে॒ রায়॑শ্চ মে পু॒ষ্টং চ॑ মে॒ পুষ্টি॑শ্চ মে বি॒ভু চ॑ মে প্র॒ভু চ॑ মে পূ॒র্ণং চ॑ মে পূ॒র্ণত॑রং চ মে॒ কুয়॑বং চ॒ মেऽক্ষি॑তং চ॒ মেऽন্নং॑ চ॒ মেऽক্ষু॑চ্চ মে য়॒জ্ঞেন॑ কল্পন্তাম্ ॥ ১০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
রয়িশ্চেত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । আত্মা দেবতা । নিচৃচ্ছক্বরী ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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