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यजुर्वेद अध्याय - 18

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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 72
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
    61

    वै॒श्वा॒न॒रो न॑ऽऊ॒तय॒ऽआ प्र या॑तु परा॒वतः॑। अ॒ग्निर्नः॑ सुष्टु॒तीरुप॑॥७२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वै॒श्वा॒न॒रः। नः॒। ऊ॒तये॑। आ। प्र। या॒तु॒। प॒रा॒वत॒ इति॑ परा॒ऽवतः॑। अ॒ग्निः। नः॒। सु॒ष्टु॒तीः। सु॒स्तु॒तीरिति॑ सुऽस्तु॒तीः। उप॑ ॥७२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैश्वानरो नऽऊतय आ प्र यातु परावतः । अग्निर्नः सुष्टुतीरुप ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वैश्वानरः। नः। ऊतये। आ। प्र। यातु। परावत इति पराऽवतः। अग्निः। नः। सुष्टुतीः। सुस्तुतीरिति सुऽस्तुतीः। उप॥७२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 72
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे सेनेश सभेश! यथा वैश्वानरोऽग्निः सूर्यः परावतः सर्वान् पदार्थान् प्राप्नोति, तथा भवानूतये न आ प्र यातु। यथाऽग्निर्विद्युत संहितास्ति, तथा त्वं नः सुष्टुतीरुपशृणु॥७२॥

    पदार्थः

    (वैश्वानरः) विश्वेषु नरेषु यो राजते स एव (नः) अस्माकम् (ऊतये) रक्षाद्याय (आ) (प्र) (यातु) प्राप्नोतु (परावतः) दूरदेशात् (अग्निः) सूर्यः (नः) अस्माकम् (सुष्टुतीः) या शोभनाः स्तुतयस्ताः (उप)॥७२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यः सूर्यवद् दूरस्थोऽपि न्यायेन सर्वान् पदार्थान् प्रकाशयति, यथा च दूरस्थोऽपि सद्गुणाढ्यो जनः प्रशस्यते, तथा राजपुरुषैर्भवितव्यम्॥७२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे सेना सभा के पति! जैसे (वैश्वानरः) सम्पूर्ण नरों में विराजमान (अग्निः) सूर्यरूप अग्नि (परावतः) दूरदेशस्थ सब पदार्थों को प्राप्त होता है वैसे आप (ऊतये) रक्षादि के लिये (नः) हमारे समीप (आ, प्र, (यातु) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये, जैसे बिजुली सब में व्यापक होकर समीपस्थ रहती है, वैसे (नः) हमारी (सुष्टुतीः) उत्तम स्तुतियों को (उप) अच्छे प्रकार सुनिये॥७२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष सूर्य्य के समान दूरस्थ होकर भी न्याय से सब व्यवहारों को प्रकाशित कर देता है और जैसे दूरस्थ सत्यगुणों से युक्त सत्पुरुष प्रशंसित होता है, वैसे ही राजपुरुषों को होना चाहिये॥७२॥

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    विषय

    वैश्वानर अग्नि का वर्णन, राजा सभापति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( वैश्वानरः ) समस्त मनुष्यों में अधिक प्रतिष्ठित, सबका हितैषी (अग्निः ) अग्नि या सूर्य के समान तेजस्वी ( परावतः ) दूर देश से भी ( नः ) हमारी ( ऊतये ) रक्षा के लिये ( आ प्र यातु ) आवे और (नः) हमारी ( सु स्तुती: ) उत्तम स्तुतियों को (उप) श्रवण करे । शत० ९ । ५ । २ । ६ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्र ऋषिः । वैश्वानरोऽग्निर्देवता आर्षी गायत्री । षड्जः ॥

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    विषय

    वैश्वानरः, विश्वामित्रः

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार 'जय' विजेता बनकर 'विश्वामित्र' - सभी के साथ स्नेह करनेवाला बनता है और प्रभु से प्रार्थना करता है कि (वैश्वानर:) = सब मनुष्यों का हित करनेवाला प्रभु (परावतः) = दूर देश से (नः ऊतये) = हमारे रक्षण के लिए (आ प्रयातु) = सर्वथा समीप देश में प्राप्त हो । अज्ञानवश जब हम प्रभु से दूर होते हैं, तब हमें भय आदि प्राप्त होते हैं तथा काम-क्रोधादि शत्रुओं के हम वशीभूत हो जाते हैं। ज्ञान होने पर हम उस प्रभु को अपने हृदय में अनुभव करते हैं, उससे हमें जहाँ अभय प्राप्त होता है, वहाँ हम काम-क्रोधादि के शिकार नहीं होते । २. (अग्निः) = हमारी सब उन्नतियों का साधक वह प्रभु (सुष्टुतीरुप) = हमसे की गई शोभन स्तुतियों के द्वारा [सुष्टुतिभिः] (नः) = हमारे (उप) = समीप उपस्थित हों। वे प्रभु हमारे रक्षक हों। यदि थोड़ा-सा विचार किया जाए तो इससे बढ़कर हमारा सौभाग्य क्या हो सकता है कि प्रभु हमारी रक्षा कर रहे हों, परन्तु यह होगा तभी जब [क] हम भी उस प्रभु की भाँति ही 'वैश्वानर' बनें। सभी का हित करनेवाले हों इस भावना को अपनाकर ही हम मन्त्र के ऋषि 'विश्वामित्र' होंगे। प्रभु की रक्षा का पात्र बनने का [ख] दूसरा साधन 'अग्नि' बनना है। हममें निरन्तर आगे बढ़ने की भावना हो। [ग] इस आगे बढ़ने के उद्देश्य से हम प्रभु की उत्तम स्तुति करनेवाले बनें [सुष्टुती ] । इन स्तुतियों से हमारे सामने एक लक्ष्य दृष्टि उत्पन्न होगी। यह लक्ष्य आँख से ओझल न होगा तो हम निरन्तर आगे बढ़ते चलेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ - [क] हम सब प्राणियों के हित की भावना से कार्यों में प्रवृत्त हों। [ख] हममें आगे बढ़ने की प्रवृत्ति हो । [ग] प्रभु के उत्तम स्तवन में प्रवृत्त हों।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो पुरुष सूर्याप्रमाणे दूर राहूनही नियमाने सर्व व्यवहार न्यायाने पार पाडतो आणि सत्य गुणांनीयुक्त असलेला पुरुष दूर असला तरी प्रशंसनीय ठरतो, तसेच राजपुरुषांनीही वागावे.

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    विषय

    पुन्हा तोच विषय

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे सेनापती वा सभाध्यक्ष, ज्याप्रमाणे (वैश्वानर:) समस्त मनुष्यांमधे व्याप्त आणि रक्षक (अग्नि:) सूर्याचा तेज वा सूर्यरूप अग्नी (परावत:) दूरदेशस्थ सर्व पदार्थापर्यंत जातो (सर्वात व्यापत आहे) तद्वत आपण (अतये) आम्हा प्रजाजनांच्या रक्षणाकरिता (न:) आमच्याजवळ (आ, प्र, यात) अवश्य या. तसेच जसे ही विद्युत सर्वात व्यापक असल्यामुळे सर्वांच्या नेहमी जवळ असते, तद्वत आपण (वा आपण आमच्या रक्षणासाठी नियुक्त केलेले सैन्य वा सैनिक) सदा आमच्याजवळ असावेत आणि (न:) आमची (सुष्टुती:) चांगली स्तुतिवचनें आपण (उप) ऐका (आम्ही प्रजाजनांनी रक्षणासाठी हाक मारल्याबरोबर आपले सैनिक त्वरित यावेत, अशी व्यवस्था आपण करा, ही प्रार्थना) ॥72॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जो माणूस दूर असूनही दूर लोकांना आपल्या न्यायपूर्ण कार्यांनी प्रसन्न करतो, तो सूर्याप्रमाणे सर्वांना समान रुपेण न्याय देतो. तसेच जसे कोणीही सत्पुरुष आपल्या सदाचरणामुळे समाजात प्रतिष्ठित वा प्रशंसित होतो, राजपुरुषांनी देखील त्या व्यक्तीप्रमाणे व्हायला पाहिजे. (जनतेशी न्यायाने आणि योग्य रीतीने वागले पाहिजे) ॥72॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O ruler, just as the heat of the sun, being present in all creatures, reaches the distant objects, so shouldst thou, come near us for our protection. Just as electricity being present in all objects lives near us, so shouldst thou listen to our eulogies.

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    Meaning

    All commanding power, reaching everything and everyone like the light of the sun and the heat of fire, come to us from afar for our protection. Fire of life, listen to our songs of praise and prayer and come.

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    Translation

    May the adorable Lord, beneficial to all men, соmе for our protection from far away in response to the praise offered by us. (1)

    Notes

    Sustutiḥ, शोभना: स्तुती:, fine praises.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে সেনাসভার পতি! যেমন (বৈশ্বানরঃ) সম্পূর্ণ নরদের মধ্যে বিরাজমান (অগ্নিঃ) সূর্য্যরূপ অগ্নি (পরাবতঃ) দূর দেশস্থ সব পদার্থকে প্রাপ্ত হয় সেইরূপ আপনি (ঊতয়ে) রক্ষাদির জন্য (নঃ) আমাদের সমীপ (আ, প্র, য়াতু) উত্তম প্রকার প্রাপ্ত হউন যেমন বিদ্যুৎ সকলের মধ্যে ব্যাপক থাকিয়া সমীপস্থ থাকে সেইরূপ (নঃ) আমাদের (সুষ্টুতীঃ) উত্তম স্তুতিগুলিকে (উপ) ভালমত শুনুন ॥ ৭২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে পুরুষ সূর্য্য সমান দূরস্থ হইয়াও ন্যায়পূর্বক সকল ব্যবহারকে প্রকাশিত করিয়া দেয় এবং যেমন দূরস্থ সত্যগুণযুক্ত সৎপুরুষ প্রশংসিত হয় সেইরূপ রাজপুরুষদিগকে হওয়া উচিত ॥ ৭২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বৈ॒শ্বা॒ন॒রো ন॑ऽঊ॒তয়॒ऽআ প্র য়া॑তু পরা॒বতঃ॑ ।
    অ॒গ্নির্নঃ॑ সুষ্টু॒তীরুপ॑ ॥ ৭২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বৈশ্বানরো ন ইত্যস্য বিশ্বামিত্র ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । আর্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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