यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 64
ऋषिः - विश्वकर्मर्षिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
77
यद्द॒त्तं यत्प॑रा॒दानं॒ यत्पू॒र्त्तं याश्च॒ दक्षि॑णाः। तद॒ग्निर्वै॑श्वकर्म॒णः स्व॑र्दे॒वेषु॑ नो दधत्॥६४॥
स्वर सहित पद पाठयत्। द॒त्तम्। यत्। प॒रा॒दान॒मिति॑ परा॒ऽदान॑म्। यत्। पू॒र्त्तम्। याः। च॒। दक्षि॑णाः। तत्। अ॒ग्निः। वै॒श्व॒क॒र्म॒ण इति॑ वैश्वऽकर्म॒णः। स्वः॑। दे॒वेषु॑। नः॒। द॒ध॒त् ॥६४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्दत्तँयत्परादानँयत्पूर्तँयाश्च दक्षिणाः । तदग्निर्वैश्वकर्मणः स्वर्देवेषु नो दधत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्। दत्तम्। यत्। परादानमिति पराऽदानम्। यत्। पूर्त्तम्। याः। च। दक्षिणाः। तत्। अग्निः। वैश्वकर्मण इति वैश्वऽकर्मणः। स्वः। देवेषु। नः। दधत्॥६४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे गृहस्थ! त्वया यद्दतं यत्परादानं यत्पूर्त्तं याश्च दक्षिणा दीयन्ते, तत्स्वश्च वैश्वकर्मणोऽग्निरिव भवान् देवेषु नो दधत्॥६४॥
पदार्थः
(यत्) (दत्तम्) सुपात्रेभ्यः समर्पितम् (यत्) (परादानम्) परेभ्य आदानम् (यत्) (पूर्त्तम्) पूर्णां सामग्रीम् (याः) (च) (दक्षिणाः) कर्मानुसारेण दानानि (तत्) (अग्निः) पावक इव गृहस्थो विद्वान् (वैश्वकर्मणः) विश्वानि समग्राणि कर्माणि यस्य स एव (स्वः) ऐन्द्रियं सुखम् (देवेषु) दिव्येषु धर्म्येषु व्यवहारेषु (नः) अस्मान् (दधत्) दधातु॥६४॥
भावार्थः
ये याश्च गृहाश्रमं चिकीर्षेयुस्ते पुरुषास्ताः स्त्रियश्च विवाहात् प्राक् प्रागल्भ्यादिसामग्रीं कृत्वैव युवावस्थायां विवाहं कृत्वा धर्मेण दानादानमानादिव्यवहारं कुर्युः॥६४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे गृहस्थ विद्वन्! आपने (यत्) जो (दत्तम्) अच्छे धर्मात्माओं को दिया वा (यत्) जो (परादानम्) और से लिया वा (यत्) जो (पूर्त्तम्) पूर्ण सामग्री (याश्च) और जो कर्म के अनुसार (दक्षिणाः) दक्षिणा दी जाती है, (तत्) उस सब (स्वः) इन्द्रियों के सुख को (वैश्वकर्मणः) जिसके समग्र कर्म विद्यमान हैं, उस (अग्निः) अग्नि के समान गृहस्थ विद्वान् आप (देवेषु) दिव्य धर्मसम्बन्धी व्यवहारों में (नः) हम लोगों को (दधत्) स्थापन करें॥६४॥
भावार्थ
जो पुरुष और जो स्त्री गृहाश्रम किया चाहें, वे विवाह से पूर्व प्रगल्भता अर्थात् अपने में बल, पराक्रम, परिपूर्णता आदि सामग्री कर ही के युवास्था में स्वयंवरविधि के अनुकूल विवाह कर धर्म से दान-आदान, मान-सन्मान आदि व्यवहारों को करें॥६४॥
विषय
लेनदेन तथा प्रजा के उपकारक बड़े-बड़े कामों पर राजा का नियन्त्रण ।
भावार्थ
( यत् ) जो ( दत्तम् ) दिया जाय, ( यत् ) जो ( परा- दाम) दूसरों से लिया जाय, ( यत् पूर्त्तम) जो प्रजा के उपकार के लिये भी कूप, तड़ाग आदि बनवाये जावें, ( याः च ) और जो भी ( दक्षिणा : ) कर्म और परिश्रम के अनुरूप वेतन पुरस्कार आदि दिये जावें ( तत् ) उस सब को ( वैश्वकर्मणः ) विश्वकर्मा, राज्य के समस्त उत्तम कर्मों के प्रवर्त्तक राजा पद पर विराजमान (अग्निः ) विद्वान् नेता ही ( देवेषु ) विद्वान् द्रष्टा पुरुषों के आधार पर (नः) हममें (स्वः ) सुख की वृद्धि के लिये ( दधत् ) स्थापित या नियत करे । शत० ९ । ५ । १ । ४९ ॥ अर्थात् लेन-देन का व्यवहार, मकान, कूए बागीचे आदि और वेतन आदि सब राज व्यवस्था में रहें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यज्ञो देवता । निचृद् अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
दान व स्वर्ग
पदार्थ
१. दिव्य गुणों का अपने में निर्माण करनेवाला 'विश्वकर्मा' प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि है। यह देवशिल्पी अपने में दिव्य गुणों का निर्माण करता है। यह प्रार्थना करता है कि (यत् दत्तम्) = जब हममें भार्या, पुत्र, माता, भगिनी व भगिनीपति आदि बन्धुओं के लिए उदारतापूर्वक देने की वृत्ति होती है २. (यत् परादानम्) = और जब परोपकार के लिए दया से दीन, अन्धे आदि के लिए हम आवश्यक वस्तुओं को देते हैं। [३] (यत्पूर्त्तम्) = जब हम लोकहित के लिए वापी, कूप तड़ागादि का निर्माण करते हैं ४. (याश्च दक्षिणा:) = और जब हम ज्ञानी ब्राह्मणों के लिए यज्ञसम्बन्धिनी दक्षिणाओं को प्राप्त कराते हैं ५. (तत्) = तब (वैश्वकर्मण:) = विश्वकर्मा का हितकारी (अग्निः) = वह सब उन्नतियों का साधक प्रभु (नः) = हमें (स्वः दधत्) = सुख में स्थापित करे तथा हमें देवेषु दिव्य गुणों में स्थापित करे, अर्थात् दान की वृत्ति के परिणामरूप हमारे जीवन स्वर्गतुल्य सुखी व दिव्य गुणोंवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- हम 'दत्त, परादान, पूर्त्त व दक्षिणा' के रूप में दान देनेवाले हों और अपने जीवनों को सुखी व दिव्य गुणसम्पन्न बना पाएँ ।
मराठी (2)
भावार्थ
जे पुरुष व ज्या स्रिया गृहस्थाश्रमात प्रवेश करू इच्छितात त्यांनी विवाहापूर्वीच प्रगल्भता अर्थात् बल, पराक्रम, परिपूर्णता इत्यादींनीयुक्त व्हावे. युवावस्थेमध्येच स्वयंवर पद्धतीनुसार विवाह करून धर्माने दान (देणे) आदान (घेणे) मान, सन्मान इत्यादी व्यवहार करावेत.
विषय
पुढील मंत्रात तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे गृहस्थ विद्वान, आपण (यत्) जे ज्ञान (परादानम्) इतरांकडून घेतले आहे (ते आम्हांलाही द्या) तसेच (यज्ञाप्रसंगी) (यत्) जी (पूर्त्तम्) यज्ञासाठी आवश्यक पूर्ण साहित्य-साधने एकत्रित केली जातात. (याश्च) आणि केलेल्या) (यज्ञकर्माबद्दल) जी काही (दक्षिणा:) दक्षिणा दिली जाते (तत्) ते (सर्व (स्व:) इंद्रियसुख (वैश्वकर्मण:) सर्व आवश्यक कर्म केलेले (अग्नि:) अग्नीवत तेजस्वी गृहस्थ आपण (देवेषु) दिव्य धर्मविषयक कार्यासाठी (न:) आम्हा लोकांसाठी (दधत्) द्या. (यज्ञाचा लाभ आम्हास करून द्या आणि दक्षिणेतील अर्थिक प्राप्ती आम्हांस चांगल्या कार्यासाठी द्या.) ॥64॥
भावार्थ
भावार्थ - ज्या पुरुषांना वा स्त्रियांना गृहाश्रम करण्याची इच्छा असेल, त्यांनी विवाहापूर्वी स्वभावात प्रगल्भता आणावी म्हणजे बुद्धी बळ, पराक्रम आदीच्या दृष्टीने परिपूर्णता मिळवावी नंतर युवावस्थेत स्वयंवरविधीने आपल्या अनुकूल कन्येशी विवाह करून, दान देत तसेच दान घेत, मान-सम्मान देत-घेत आदी उत्तम आचरण करीत वाहावे ॥64॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Our gifts, our receiving of charitable grants, our pious works, our fees to priests, may the Omnificent learned householder set all this for our happiness in religious usages.
Meaning
Whatever is given, whatever is received from others for others, whatever works are raised for charity, whatever gifts are given to priests, may versatile Agni of universal action carry all that to the heavenly powers in the regions of bliss for our sake.
Translation
Whatever we have gifted (to our relatives), whatever we have given as charity (to others), whatever we have spent in public concern, and whatever we have given as fees to the priests, may the adorable Lord, the supreme architect, place all that in the world of bliss among the enlightened ones for us. (1)
Notes
Parādānam, charity given to other poor or disabled persons. Dattam, gifts given to close relations, wife, son, daughter, son-in-law etc. Purtam, money spent for public good, such as construc tion of wells, charitable guest houses, feeding the poor, planting the trees etc. Dakşină, fees for priests. Vaišvakarmaṇaḥ agniḥ, विश्वकर्मा एव अग्नि:, Agni, that is Viśvakarmā Himself.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে গৃহস্থ বিদ্বন্! আপনি (য়ৎ) যাহা (দত্তম্) উত্তম ধর্মাত্মা সকলকে দিয়াছেন অথবা (য়ৎ) যাহা (পরাদানম্) অন্যের নিকট হইতে লইয়াছেন অথবা (য়ৎ) যাহা (পূর্ত্তম্) পূর্ণ সামগ্রী (য়াশ্চ) এবং যাহা কর্মানুসার (দক্ষিণাঃ) দক্ষিণা প্রদান করা হয় (তৎ) সেই সব (স্বঃ) ইন্দ্রিয়-সুখকে (বৈশ্বকর্মণঃ) যাহার সমগ্র কর্ম বিদ্যমান সেই (অগ্নি) অগ্নি সমান গৃহস্থ বিদ্বান্ আপনি (দেবেষু) দিব্য ধর্মসম্বন্ধী ব্যবহার সমূহে (নঃ) আমাদিগকে (দধৎ) স্থাপন করুন ॥ ৬৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–যে পুরুষ এবং যে স্ত্রী গৃহাশ্রম করিতে চাহে তাহারা বিবাহের পূর্বে প্রগল্ভতা অর্থাৎ নিজের মধ্যে বল, পরাক্রম, পরিপূর্ণতাদি সামগ্রী করিয়াই যুবাবস্থায় স্বয়ংবর বিধির অনুকূল বিবাহ করিয়া ধর্মপূর্বক দান-আদান, মান-সম্মানাদি ব্যবহার সকলকে করিবে ॥ ৬৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়দ্দ॒ত্তং য়ৎপ॑রা॒দানং॒ য়ৎপূ॒র্ত্তং য়াশ্চ॒ দক্ষি॑ণাঃ ।
তদ॒গ্নির্বৈ॑শ্বকর্ম॒ণঃ স্ব॑র্দে॒বেষু॑ নো দধৎ ॥ ৬৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়দ্দত্তমিত্যস্য বিশ্বকর্মর্ষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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