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यजुर्वेद अध्याय - 18

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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 42
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    120

    भु॒ज्युः सु॑प॒र्णो य॒ज्ञो ग॑न्ध॒र्वस्तस्य॒ दक्षि॑णाऽअप्स॒रस॑ स्ता॒वा नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑॥४२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भु॒ज्युः। सु॒प॒र्ण इति॑ सुऽपर्णः॒। य॒ज्ञः। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। दक्षि॑णाः। अ॒प्स॒रसः॑। स्ता॒वाः। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥४२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भुज्युः सुपर्णा यज्ञो गन्धर्वस्तस्य दक्षिणाऽअप्सरस स्तावा नाम । स न इदम्ब्रह्म क्षत्रम्पातु तस्मै स्वाहा वाट्ताभ्यः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    भुज्युः। सुपर्ण इति सुऽपर्णः। यज्ञः। गन्धर्वः। तस्य। दक्षिणाः। अप्सरसः। स्तावाः। नाम। सः। नः। इदम्। ब्रह्म। क्षत्रम्। पातु। तस्मै। स्वाहा। वाट्। ताभ्यः। स्वाहा॥४२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 42
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्या यज्ञानुष्ठानं कुर्वन्त्वित्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यो भुज्युः सुपर्णो गन्धर्वो यज्ञोऽस्ति, तस्य या दक्षिणा अप्सरसः स्तावा नाम सन्ति, स यथा न इदं ब्रह्म क्षत्रं च पातु, तथा यूयमप्यनुतिष्ठत, तस्मै स्वाहा वाट् ताभ्यः स्वाहा च प्रयुङ्ग्ध्वम्॥४२॥

    पदार्थः

    (भुज्युः) भुज्यन्ते सुखानि यस्मात् सः (सुपर्णः) शोभनानि पर्णानि पालनानि यस्मात् सः (यज्ञः) य इज्यते संगम्यते सः (गन्धर्वः) यो गां वाणीं धरति सः (तस्य) (दक्षिणाः) दक्षन्ते दीयन्ते सुपात्रेभ्यस्ताः (अप्सरसः) या अप्सु प्राणेषु सरन्ति प्राप्नुवन्ति ताः (स्तावाः) या स्तूयन्ते प्रशस्यन्ते ताः (नाम) प्रसिद्धौ (सः) (नः) अस्मभ्यम् (इदम्) (ब्रह्म) ब्राह्मणं विद्वांसम् (क्षत्रम्) चक्रवर्त्तिनं राजानम् (पातु) (तस्मै) (स्वाहा) (वाट्) (ताभ्यः) (स्वाहा)॥४२॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या अग्निहोत्रादियज्ञान् प्रत्यहं कुर्वन्ति, ते सर्वस्य संसारस्य सुखानि वर्द्धयन्तीति बोध्यम्॥४२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य लोग यज्ञ का अनुष्ठान करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जो (भुज्युः) सुखों के भोगने और (सुपर्णः) उत्तम-उत्तम पालना का हेतु (गन्धर्वः) वाणी को धारण करने वाला (यज्ञः) सङ्गति करने योग्य यज्ञकर्म है (तस्य) उसकी (दक्षिणाः) जो सुपात्र अच्छे-अच्छे धर्मात्मा विद्वानों को दक्षिणा दी जाती हैं, वे (अप्सरसः) प्राणों में पहुँचने वाली (स्तावाः) जिनकी प्रशंसा की जाती है, ऐसी (नाम) प्रसिद्ध हैं, (सः) वह जैसे (नः) हमारे लिये (इदम्) इस (ब्रह्म) विद्वान्, ब्राह्मण और (क्षत्रम्) चक्रवर्ती राजा की (पातु) रक्षा करे, वैसा तुम लोग भी अनुष्ठान करो। (तस्मै) उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया की (वाट्) प्राप्ति (ताभ्यः) उक्त दक्षिणाओं के लिये (स्वाहा) उत्तम रीति से उत्तम क्रिया को संयुक्त करो॥४२॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अग्निहोत्र आदि यज्ञों को प्रतिदिन करते हैं, वे समस्त संसार के सुखों को बढ़ाते हैं, यह जानना चाहिये॥४२॥

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    भावार्थ

    (यज्ञ) यज्ञ, प्रजापति ( भुज्युः ) सबका पालक रक्षक, भोग्य फल का देने वाला, (सुपर्णः) उत्तम पालन सामथ्यों से युक्त, ( गन्धर्वः ) वेद वाणी को धारण करने से 'गंधर्व' है । ( तस्य ) उसकी ( अप्सरसः ) प्रजाओं या कार्यकर्त्ताओं को प्राप्त होने वाली ( दक्षिणाः ) कार्य में दक्षता की उत्पादक दक्षिणायें, (स्तावा: ) सुपात्र में दी जाकर यज्ञकर्त्ता और यज्ञ दोनों की स्तुति के कारण होने से 'स्तावा' हैं । उसी प्रकार ( यज्ञः ) राष्ट्रपालक, राजा ( भुज्युः ) प्रजा का पालक और राष्ट्र का भोक्ता, (सुपर्णः ) आदित्य के समान उत्तम पालन सामर्थ्यो, उत्तम रथवाहनों व विमानों से सम्पन्न, ( यज्ञः ) सबका संगतिकारक ( गंधर्वः ) पृथ्वी का धारण पोषक है । ( तस्य ) उसकी ( अप्सरसः ) ज्ञान और कर्म में व्याप्त ( दक्षिणा: ) राष्ट्र कार्य में बल उत्पन्न करने वाली प्रजाएं (स्तावा: नाम ) स्तुतिः योग्य होने से 'स्तावा' हैं । ( स० -नः इदं० ) । 'भुज्यु' के विमानों को वर्णन देखो, ऋग्वेद मं० १ । सू० । ११६ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यज्ञो देवता । स्वराड आर्षी पंक्तिः । पंचमः ॥

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    विषय

    भुज्युः सुपर्णः

    पदार्थ

    १. सम्राट् का पहला कर्त्तव्य भुज्युः शब्द से सूचित हो रहा है। 'भोजयते' यह सबके भोजन की व्यवस्था करनेवाला होता है। आपस्तम्ब के शब्दों में ('नास्य विषये क्षुधाया अवसीदेत्') = इसके राष्ट्र में कोई भी व्यक्ति भूख से अवसन्न न हो। राजा ऐसी व्यवस्था करे कि राष्ट्र में कभी अकाल की स्थिति न हो। २. यह (सुपर्ण:) = उत्तमता से पालन व पूरण करनेवाला है। यह सम्राट् राष्ट्र का रक्षण करता है और न्यूनताओं को दूर करता है। ३. (यज्ञः) = [यज् संगतिकरण] यह प्रजाओं के साथ मेल करनेवाला होता है। ४. (गन्धर्वः) = यह राजा वेदवाणी का धारण करनेवाला हो और वेदवाणी के अनुसार राष्ट्र का धारण करनेवाला हो। ५ (तस्य) = उस सम्राट् के (अप्सरसः) = अध्यक्ष (दक्षिणा) = अपने कार्यों में बड़े चतुर [Dexterous] होते हैं। प्रजा की मनोवृत्ति को समझते हुए बड़ी कुशलता से प्रजा - कार्यों के साधक होते हैं, अतएव (स्तावा नाम) [ स्तूयन्ते] = प्रजाओं से प्रशंसित होकर 'स्तावा' नामवाले होते हैं । ६. (सः) = वह (राजा नः) = हमारे (इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु) = इस ज्ञान व बल की रक्षा करे । ७. तस्मै स्वाहा उस राजा के लिए हम (स्व) = धन का कर के रूप में हा त्याग करें। ८. वह राजा (वाट्) = प्रजाहित के लिए ही इस धन का विनियोग करे। ९. (ताभ्यः स्वाहा) = उन अध्यक्षों के लिए भी हम अपने स्वार्थ को छोड़कर उनके कार्यों में सहायक होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - राष्ट्र में कोई भूखा न मरे । राजा ऐसी व्यवस्था करे कि प्रजा के जीवन में न्यूनताएँ उत्पन्न न हों। अध्यक्ष कुशलता से कार्य करें। इतनी कुशलता से कि वे प्रजा में प्रशंसित हों।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जी माणसे अग्रिहोत्र इत्यादी यज्ञ दररोज करतात ती जगाचे सर्व सुख वाढवितात हे जाणले पाहिजे.

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    विषय

    मनुष्यांनी यज्ञाचे अनुष्ठान केले पाहिजे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, जो (यज्ञ) (भुज्यु:) सुख प्राप्त करण्याचा हेतू असून (सुपर्ण:) पालनीय वा अवश्यमेव करणीय कर्म आहे, तसेच जो (गन्धर्व:) वाणीचे धारण करणारा (यज्ञाच्यावेळी मंत्रपाठ वा मंत्र गायन होत असल्यामुळे जो वाणी शुद्ध करणारा) आहे, असा (यज्ञ:) यज्ञ संगतीकरणाचा (एकत्वाचा) मुख्य कर्म आहे (यज्ञामुळे सर्व एकत्र येतात व समाजात एकत्व नांदते) (तस्य) त्य यज्ञाच्यावेळी (दक्षिणा:) सुपात्र उत्तम धर्मात्माजनांना ज्या दक्षिणा दिल्या जातात ती (अप्सरस्त्र:) प्राणांना नवोत्साह देणार्‍या आणि (स्तावा:) प्रशंसनीय असतात, असे सर्वत्र (नाम) प्रसिद्ध आहे. (स:) तो यज्ञ ज्याप्रमाणे (न:) आमचे तसेच (इदम्) या (ब्रह्म) विद्वान ब्राह्मणाचे आणि (क्षत्रम्) चक्रवर्ती राजाचे (पातु) रक्षण करो तद्वत तुम्ही (सर्व गृहस्थजन) देखील त्या यज्ञाचे अनुष्ठान करा. (स्वाहा) त्या यज्ञासाठी उत्तम विकर्म (विधी) करा आणि (ताभ्य:) त्या यज्ञप्रसंगी ज्या दक्षिणा दिल्या जातात; त्यांचा उपयोग (स्वाहा) उत्तम रीत्या उत्तम कर्म करण्यात करा ॥42॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे लोक दररोज अग्निहोम आदी यज्ञ करतात, ते सार्‍या जगात सुखांची वृद्धी करतात. सर्वांनी हे सत्य जाणले पाहिजे ॥42॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Sacrifice (yajna) is the bestower of delights, a nice nourisher, and the repository of vedic speech. Heartfelt famous praises are its guerdons. May it protect this our Priesthood and Nobility. All-Hail to the Sacrifice for success in our undertakings. To those All-Hail.

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    Meaning

    Yajna, creator and giver of joy and prosperity, health and nourishment, is the sustainer of the earth, cows and the Word of the Vedas. His pleasure and joy is the gifts for the priests and the devotees and the bliss of the holy chants which play around in ecstasy. May the yajna sustain and promote our Brahma system of knowledge and generosity of light and creativity. May yajna sustain and advance our Kshatra system of defence and development. Homage and libations for yajna! Homage and libations for charity and holy chants!

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    Translation

    Provider of all enjoyments and spreading his wings all over; the sacrifice is the gandharva. (1) Charities are called his apsaras, who bring praise. (2) May he protect our intellectuals and warriors. I dedicate it to him. (3) I dedicate to his apsaras as well. (4)

    Notes

    Bhujyuh, भुज्यंते सुखानि यस्मात्, provider of enjoy ments. The sacrifice is bhujyuh. Suparna, spreading its wings all over. Also, one of beau tiful wings, i. e. having attractive paraphernalia, Stāvāh, स्तूयते याभिः ताः, charities, 'दक्षिणाभिर्हि यज्ञः स्तूयतेऽथो यो वै कश्चन दक्षिणां ददाति स्तूयत एव सः', a sacrifice is praised for its charities; and one, who gives charities is also praised. (Satapatha, IX. 4. 1. 11).

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    बंगाली (1)

    विषय

    মনুষ্যা য়জ্ঞানুষ্ঠানং কুর্বন্ত্বিত্যাহ ॥
    মনুষ্যগণ যজ্ঞানুষ্ঠান করুক এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যে (ভুজ্যুঃ) সুখভোগ করিবার এবং (সুপর্ণঃ) উত্তম উত্তম পালন করিবার হেতু (গন্ধর্বঃ) বাণীকে ধারণকারী (য়জ্ঞঃ) সঙ্গতি করিবার যোগ্য যজ্ঞকর্ম (তস্য) তাহার (দক্ষিণাঃ) যে সুপাত্র উত্তম উত্তম ধর্মাত্মা বিদ্বান্দিগের দক্ষিণা দেওয়া হয় সেগুলি (অপ্সরসঃ) প্রাণের মধ্যে পৌঁছানকারী (স্তাবাঃ) যাহার প্রশংসা করা হয় এমন (নাম) প্রসিদ্ধ (সঃ) সে যেমন (নঃ) আমাদের জন্য (ইদম্) এই (ব্রহ্ম) বিদ্বান্ ব্রাহ্মণ ও (ক্ষত্রম্) চক্রবর্ত্তী রাজার (পাতু) রক্ষা করুক সেইরূপ তোমরাও অনুষ্ঠান কর (তস্মৈ) তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়ার (বাট্) প্রাপ্তি (তাভ্যঃ) উক্ত দক্ষিণা সমূহের জন্য (স্বাহা) উত্তম রীতি পূর্বক উত্তম ক্রিয়াকে সংযুক্ত কর ॥ ৪২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যে সব মনুষ্য অগ্নিহোত্রাদি যজ্ঞকে প্রতিদিন করে তাহারা সমস্ত সংসারের সুখ বৃদ্ধি করে–ইহা জানা উচিত ॥ ৪২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ভু॒জ্যুঃ সু॑প॒র্ণো য়॒জ্ঞো গ॑ন্ধ॒র্বস্তস্য॒ দক্ষি॑ণাऽঅপ্স॒রস॑ স্তা॒বা নাম॑ ।
    স ন॑ऽই॒দং ব্রহ্ম॑ ক্ষ॒ত্রং পা॑তু॒ তস্মৈ॒ স্বাহা॒ বাট্ তাভ্যঃ॒ স্বাহা॑ ॥ ৪২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ভুজ্যুরিত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । য়জ্ঞো দেবতা । বিরাডার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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