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यजुर्वेद अध्याय - 18

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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 25
    ऋषिः - पूर्वदेवा ऋषयः देवता - समाङ्कगणितविद्याविदात्मा देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    169

    चत॑स्रश्च मे॒ऽष्टौ च॑ मे॒ऽष्टौ च॑ मे॒ द्वाद॑श च मे॒ द्वाद॑श च मे॒ षोड॑श च मे॒ षोड॑श च मे विꣳश॒तिश्च॑ मे विꣳश॒तिश्च॑ मे॒ चतु॑र्विꣳशतिश्च मे॒ चतु॑र्विꣳशतिश्च मे॒ऽष्टावि॑ꣳशतिश्च मे॒ऽष्टावि॑ꣳशतिश्च मे॒ द्वात्रि॑ꣳशच्च मे॒ द्वात्रि॑ꣳशच्च मे॒ षट्त्रि॑ꣳशच्च मे॒ षट्त्रि॑ꣳशच्च मे चत्वारि॒ꣳशच्च॑ मे चत्वारि॒ꣳशच्च मे॒ चतु॑श्चत्वारिꣳशच्च मे॒ चतु॑श्चत्वारिꣳशच्च मेऽष्टाच॑त्वारिꣳशच्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चत॑स्रः। च॒। मे॒। अ॒ष्टौ। च॒। मे॒। अ॒ष्टौ। च॒। मे॒। द्वाद॑श। च॒। मे॒। द्वाद॑श। च॒। मे॒। षोड॑श। च॒। मे॒। षोड॑श। च॒। मे॒। वि॒ꣳश॒तिः। च॒। मे॒। वि॒ꣳश॒तिः। च॒। मे॒। चतु॑र्विꣳशति॒रिति॒ चतुः॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। चतु॑र्विꣳशति॒रिति॒ चतुः॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। अ॒ष्टावि॑ꣳशति॒रित्य॒ष्टाऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। अ॒ष्टावि॑ꣳशति॒रित्य॒ष्टाऽवि॑ꣳशतिः। च॒। मे॒। द्वात्रि॑ꣳशत्। च॒। मे॒। द्वात्रि॑ꣳशत्। च॒। मे॒। षट्त्रि॑ꣳश॒दिति॒ षट्ऽत्रि॑ꣳशत्। च॒। मे॒। षट्त्रि॑ꣳश॒दिति॒ षट्ऽत्रि॑ꣳशत्। च॒। मे॒। च॒त्वा॒रि॒ꣳशत्। च॒। मे॒। च॒त्वा॒रि॒ꣳशत्। च॒। मे॒। चतु॑श्चत्वारिꣳश॒दिति॒ चतुः॑ऽचत्वारिꣳशत्। च॒। मे॒। चतु॑श्चत्वारिꣳश॒दिति॒ चतुः॑ऽचत्वारिꣳशत्। च॒। मे॒। अ॒ष्टाच॑त्वारिꣳश॒दित्य॒ष्टाऽच॑त्वारिꣳशत्। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चतस्रश्च मे ष्टौ च मे ष्टौ च मे द्वादश च मे द्वादश च मे षोडश च मे षोडश च मे विँशतिश्च मे विँशतिश्च मे चतुर्विँशतिश्च मे चतुर्विँशतिश्च मे ष्टाविँशतिश्च मे ष्टाविँशच्च मे द्वात्रिँशच्च मे द्वात्रिँशच्च मे षट्त्रिँशच्च मे षट्त्रिँशच्च मे चत्वारिँशच्च मे चत्वारिँशच्च मे चतुश्चत्वारिँशच्च मे चतुश्चत्वारिँशच्च मे ष्टाचत्वारिँशच्च मे ष्टाचत्वारिँशच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    चतस्रः। च। मे। अष्टौ। च। मे। अष्टौ। च। मे। द्वादश। च। मे। द्वादश। च। मे। षोडश। च। मे। षोडश। च। मे। विꣳशतिः। च। मे। विꣳशतिः। च। मे। चतुर्विꣳशतिरिति चतुःऽविꣳशतिः। च। मे। चतुर्विꣳशतिरिति चतुःऽविꣳशतिः। च। मे। अष्टाविꣳशतिरित्यष्टाऽविꣳशतिः। च। मे। अष्टाविꣳशतिरित्यष्टाऽविꣳशतिः। च। मे। द्वात्रिꣳशत्। च। मे। द्वात्रिꣳशत्। च। मे। षट्त्रिꣳशदिति षट्ऽत्रिꣳशत्। च। मे। षट्त्रिꣳशदिति षट्ऽत्रिꣳशत्। च। मे। चत्वारिꣳशत्। च। मे। चत्वारिꣳशत्। च। मे। चतुश्चत्वारिꣳशदिति चतुःऽचत्वारिꣳशत्। च। मे। चतुश्चत्वारिꣳशदिति चतुःऽचत्वारिꣳशत्। च। मे। अष्टाचत्वारिꣳशदित्यष्टाऽचत्वारिꣳशत्। च। मे। यज्ञेन। कल्पन्ताम्॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ समाङ्कगणितविषयमाह॥

    अन्वयः

    यज्ञेन सङ्गतिकरणेन मे चतस्रः—चतुःसंख्या च-चतस्रो मेऽष्टौ, च-पुनर्मे अष्टौ-च-चतस्रो मे द्वादश, च-पुनर्मे द्वादश च-चतस्रो मे षोडश, च-पुनर्मे षोडश च-चतस्रो मे विंशतिः, च-पुनर्मे विंशतिश्च-चतस्रो मे चतुर्विंशतिः, च-पुनर्मे चतुर्विंशतिश्च-चतस्रो मेऽष्टाविंशतिः, च-पुनर्मेऽष्टाविंशतिश्च-चतस्रो मे द्वात्रिंशत्, च-पुनर्मे द्वात्रिंशच्च-चतस्रो मे षट्त्रिंशच्च-पुनर्मे षट्त्रिंशच्च-चतस्रो मे चत्वारिंशत्, च-पुनर्मे चत्वारिंशच्च-चतस्रो मे चतुश्चत्वारिंशत्, च पुनर्मे चतुश्चत्वारिंशच्च-चतस्रो मेऽष्टाचत्वारिंशत् चादग्रेऽपि पूर्वोक्तविधिना संख्याः कल्पन्ताम्॥ इत्येको योगपक्षः॥१॥२५॥अथ द्वितीयः—यज्ञेन योगतो विपरीतेन दानरूपेण वियोगमार्गेण विपरीताः संगृहीताश्चान्यान्यासंख्या चतुर्णां वियोगेन यथा मे कल्पन्तां तथा मेऽष्टाचत्वारिंशच्च-चतुर्णां दानेन वियोगेन मे चतुश्चत्वारिंशत् च-पुनर्मे चतुश्चत्वारिंशच्च-चतुर्णां वियोगेन मे चत्वारिंशत् च-पुनर्मे चत्वारिंशच्च-चतुर्णां वियोगेन मे षट्त्रिंशत् च-पुनर्मे षट्त्रिंशच्च-चतुर्णां वियोगेन मे द्वात्रिंशदेवं सर्वत्र॥ इति वियोगेन द्वितीयः पक्षः॥२॥२५॥ अथ तृतीयः—मे चतस्रश्च मेऽष्टौ च, मेऽष्टौ च मे द्वादश च, मे द्वादश च मे षोडश च, मे षोडश च मे विंशतिश्चैवंविधाः संख्या अग्रेऽपि यज्ञेन उक्तपुनःपुनर्योगेन गुणनेन कल्पन्तां समर्था भवन्तु, इति गुणनविषयेण तृतीयः पक्षः॥३॥२५॥

    पदार्थः

    (चतस्रः) चतुष्ट्वविशिष्टा संख्या (च) (मे) (अष्टौ) अष्टत्वविशिष्टा संख्या (च) (मे) (अष्टौ) (च) (मे) (द्वादश) द्व्यधिका दश (च) (मे) (द्वादश) (च) (मे) (षोडश) ष[धिका दश (च) (मे) (षोडश) (च) (मे) (विंशतिः) (च) (मे) (विंशतिः) (च) (मे) (चतुर्विंशतिः) चतुराधिका विंशतिः (च) (मे) (चतुर्विंशतिः) (च) (मे) (अष्टाविंशतिः) अष्टाधिका विंशतिः (च) (मे) (अष्टाविंशतिः) (च) (मे) (द्वात्रिंशत्) द्व्यधिका त्रिंशत् (च) (मे) (द्वात्रिंशत्) (च) (मे) (षट्त्रिंशत्) षडुत्तरा त्रिंशत् (च) (मे) (षट्त्रिंशत्) (च) (मे) (चत्वारिंशत्) (च) (मे) (चत्वारिंशत्) (च) (मे) (चतुश्चत्वारिंशत्) चतुरधिका चत्वारिंशत् (च) (मे) (चतुश्चत्वारिंशत्) (च) (मे) (अष्टाचत्वारिंशत्) अष्टाधिका चत्वारिंशत् (च) (मे) (यज्ञेन) योगेन वियोगेन वा (कल्पन्ताम्) समर्था भवन्तु॥२५॥

    भावार्थः

    पूर्वस्मिन्नेकां संख्यां संगृह्य द्वयोर्योगवियोगाभ्यां विषमाः संख्याः प्रतिपादिताः। अतः पूर्वत्र क्रमेणागतैकद्वित्रिसंख्या विहायात्र मन्त्रे चतसॄणां योगेन वियोगेन वा चतुःसंख्यामारभ्य समसंख्याः प्रतिपादिताः। अनेन मन्त्रद्वयेन विषमसंख्यानां समसंख्यानाञ्च भेदान् विज्ञाय यथाबुद्धिकल्पनया सर्वा गणितविद्या विज्ञातव्याः॥२५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सम अङ्कों के गणित विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (यज्ञेन) मेल करने अर्थात् योग करने में (मे) मेरी (चतस्रः) चार संख्या (च) और चारि संख्या (मे) मेरी (अष्टौ) आठ संख्या (च) फिर (मे) मेरी (अष्टौ) आठ संख्या (च) और चारि (मे) मेरी (द्वादश) बारह (च) फिर (मे) मेरी (द्वादश) बारह (च) और चारि (मे) मेरी (षोडश) सोलह (च) फिर (मे) मेरी (षोडश) सोलह (च) और चारि (मे) मेरी (विंशतिः) बीस (च) फिर (मे) मेरी (विंशतिः) बीस (च) और चारि (मे) मेरी (चतुर्विंशतिः) चौबीस (च) फिर (मे) मेरी (चतुर्विंशतिः) चौबीस (च) और चारि (मे) मेरी (अष्टाविंशतिः) अट्ठाईस (च) फिर (मे) मेरी (अष्टाविंशतिः) अट्ठाईस (च) और चारि (मे) मेरी (द्वात्रिंशत्) बत्तीस (च) फिर (मे) मेरी (द्वात्रिंशत्) बत्तीस (च) चारि (मे) मेरी (षट्त्रिंशत्) छत्तीस (च) फिर (मे) मेरी (षट्त्रिंशत्) छत्तीस (च) और चारि (मे) मेरी (चत्वारिंशत्) चालीस (च) फिर (मे) मेरी (चत्वारिंशत्) चालीस (च) और चारि (मे) मेरी (चतुश्चत्वारिंशत्) चवालीस (च) फिर (मे) मेरी (चतुश्चत्वारिंशत्) चवालीस (च) और चारि (मे) मेरी (अष्टाचत्वारिंशत्) अड़तालीस (च) आगे भी उक्तविधि से संख्या (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, यह प्रथम योगपक्ष है॥१॥२५॥ अब दूसरा- (यज्ञेन) योग से विपरीत दानरूप वियोगमार्ग से विपरीत संगृहीत (च) और संख्या चारि-चारि के वियोग से जैसे (मे) मेरी (कल्पन्ताम्) समर्थ हों वैसे (मे) मेरी (अष्टाचत्वारिंशत्) अड़तालीस (च) चारि के वियोग से (मे) मेरी (चतुश्चत्वारिंशत्) चवालीस (च) फिर (मे) मेरी (चतुश्चत्वारिंशत्) चवालीस (च) चारि के वियोग से (मे) मेरी (चत्वारिंशत्) चालीस (च) फिर (मे) मेरी (चत्वारिंशत्) चालीस (च) चारि के वियोग से (मे) मेरी (षट्त्रिंशत्) छत्तीस (च) फिर (मे) मेरी (षट्त्रिंशत्) छत्तीस (च) चारि के वियोग से (मे) मेरी (द्वात्रिंशत्) बत्तीस इस प्रकार सब संख्याओं में जानना चाहिये। यह वियोग से दूसरा पक्ष है॥२॥२५॥ अब तीसरा पक्ष-(मे) मेरी (चतस्रः) चारि संख्या (च) और (मे) मेरी (अष्टौ) आठ (च) परस्पर गुणी, (मे) मेरी (अष्टौ) आठ (च) और (मे) मेरी (द्वादश) बारह (च) परस्पर गुणी, (मे) मेरी (द्वादश) बारह (च) और (मे) मेरी (षोडश) सोलह (च) परस्पर गुणी, (मे) मेरी (षोडश) सोलह (च) और (मे) मेरी (विंशतिः) बीस (च) परस्पर गुणी, इस प्रकार संख्या आगे भी (यज्ञेन) उक्त वार-वार गुणन से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों। यह गुणनविषय से तीसरा पक्ष है॥३॥२५॥

    भावार्थ

    पिछले मन्त्र में एक संख्या को लेकर दो के योग वियोग से विषम संख्या कही। इससे पूर्व मन्त्र में क्रम से आई हुई एक, दो, तीन संख्या को छोड़ इस मन्त्र में चारि के योग वा वियोग से चौथी संख्या को लेकर सम संख्या प्रतिपादन किई। इन दोनों मन्त्रों से विषम संख्या और सम संख्याओं का भेद जानके बुद्धि के अनुकूल कल्पना से सब गणित विद्या जाननी चाहिये॥२५॥

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    विषय

    यज्ञ से ४ । ८ । १२ । क्रम से १८ तक के व्यूह ।

    भावार्थ

    ( चतस्रः च ) चार, ( अष्टौ च अष्टौ च ) आठ और आठ, ( द्वादश च द्वादश च) बारह और बारह, ( षोडश च षोडश च ) सोलह और सोलह, ( विंशतिः च विंशतिः च) बीस और बीस, ( चतुर्विंशतिः च चतुर्विंशतिः च) चौबीस और चौबीस, (अष्टाविंशतिः च अष्टाविंशतिः च) अट्ठाईस और अट्ठाईस ( द्वात्रिंशत् च द्वात्रिंशत् च ) बत्तीस और बत्तीस (षट्त्रिंशत् च षट्त्रिंशत् च ) छत्तीस और छत्तीस, ( चत्वारिंशत् च चत्वारिंशत् च ) चालिस और चालिस, ( चतुश्चत्वारिंशत् च चतुश्चत्वा- रिंशत् च ) चवालिस और चवालिस, ( अष्टाचत्वारिंशत् च अष्टाचत्वा- रिंशत् च ) अड़तालीस और अड़तालीस की सेनाओं के व्यूह ( मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ) मेरे यज्ञ परस्पर मेल, संयोग और विभाग, गुणन और भाग द्वारा हों । युग्म संख्याओं की १ + १ = २, १+२=३, ३+२=५, ५+२= ७ इत्यादि । ३+५= ८, ५+७=१२, ७+९= १६, ९ + ११ = २०, ११+ १३ = २४ | इस प्रकार अयुग्म संख्याओं के योग से निष्पत्ति होती है । इसी प्रकार परस्पर गुणन और भाग से भी वृद्धि और न्नयूता होती है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    समाङ्कगणितविदात्मा । १ भुरिक पंक्तिः । २ निचृद् आकृतिः । पंचमः ॥

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    विषय

    आदित्य ब्रह्मचारी [अड़तालीस वर्ष]

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार तेतीस - के तेतीस देवों को अपनाकर मैं (अदितिः) = अदीना देवमाता का सच्चा पुत्र 'आदित्य' बनूँ। इस आदित्य ब्रह्मचारी की प्रार्थना है कि (चतस्रः च मे अष्टौ च मे) = मेरे चार वर्ष व चार के साथ आठ वर्ष यज्ञेन देवपूजा के हेतु से (कल्पन्ताम्) = सम्पन्न हों। ये मुझमें अधिकाधिक दिव्यता व शक्ति भरनेवाले हों। २. (अष्टौ च मे द्वादश च मे) = मेरे आठ वर्ष सुन्दर हों और बारह वर्ष भी देवगुणों के निर्माण से सुन्दर बनें । ३. (द्वादश च मे षोडश च मे) = मेरे बारह वर्ष यज्ञ से शक्तिशाली बनें और सोलह वर्ष भी यज्ञों से सम्पन्न हों । ४. इसी प्रकार (षोडश च मे विंशतिः च मे) = मेरे सोलह वर्ष यज्ञ से शक्तिसम्पन्न हों और बीस वर्ष भी इसी प्रकार उत्तम हों । ५. (विंशतिः च मे चतुर्विंशतिः च मे) = मेरे बीस वर्ष तो गुणों का आदान करनेवाले हों ही, २४ वर्ष भी गुणों का ग्रहण करते हुए मुझे वसु-उत्तम वसुओंवाला बनाएँ। ६. (चतुर्विंशतिः च मे अष्टाविंशतिः च मे) = मेरे चौबीस वर्ष तो यज्ञ से सम्पन्न हों ही अट्ठाईस वर्ष भी यज्ञ से शक्तिशाली बनें ७. (अष्टाविंशतिः च मे द्वात्रिंशत् च मे) = मेरे अट्ठाईस वर्ष यज्ञ से शक्तिसम्पन्न हों और बत्तीस वर्ष भी शक्तिसम्पन्न हों। ८. (द्वात्रिंशत् च मे षट्त्रिंशत् च मे) = मेरे बत्तीस वर्ष यज्ञ के द्वारा शक्तिसम्पन्न हों तथा छत्तीस वर्ष भी यज्ञ से सामर्थ्य - सम्पन्न बनें। ९. (षट्त्रिंशत् च मे चत्वारिंशत् च मे) = जहाँ मेरे छत्तीस वर्ष यज्ञ से समर्थ बनें और मैं रुद्र ब्रह्मचारी बन पाऊँ, वहाँ मेरे चालीस वर्ष भी यज्ञ से मुझे सम्पन्न करें। १०. (चत्वारिंशत् च मे चतुश्चत्वारिंशत् च मे) = मेरे चालीस वर्ष यज्ञ से शक्तिशाली बनें और चवालीस वर्षों को मैं यज्ञों से शक्तिसम्पन्न कर पाऊँ और ११. अन्त में (चतुश्चत्वारिंशत् च मे) = मेरे चवालीस वर्ष बड़े उत्तम हों तथा (अष्टाचत्वारिंशत् च मे) = मेरे अड़तालीस वर्ष (यज्ञेन) = प्रभु-सम्पर्क के द्वारा (कल्पन्ताम्) = प्रभु के सामर्थ्य से सम्पन्न हों और इस प्रकार मैं आदित्य ब्रह्मचारी बनूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ - २४ वर्षों को यज्ञ से सम्पन्न करके मैं 'वसु' बनूँ। छत्तीस वर्षों को यज्ञ से क्लृप्त करके मैं 'रुद्र' बनूँ और अड़तालीस वर्षों को यज्ञ से सम्पन्न करके मैं आदित्य बन जाऊँ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    मागच्या मंत्रात एक संख्या घेऊन दोनच्या बेरजेने व वजाबाकीने विषम संख्या दर्शविलेली आहे. यापूर्वीच्या मंत्रात क्रमाने आलेल्या एक, दोन, तीन संख्या सोडून या मंत्रात चारांची बेरीज किंवा वजाबाकीने चौथी संख्या घेऊन सम संख्या प्रतिपादित केलेली आहे. या दोन मंत्रांनी विषम किंवा सम संख्यांचे भेद जाणून बुद्धीच्या साह्याने तर्कपूर्ण रीतीने सर्व गणित विद्या जाणली पाहिजे.

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    विषय

    यानंतर सर्व अंकाच्या गणित विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (यज्ञेन) जोडल्यामुळे म्हणजे योग (बेरीज) केल्यामुळे (मे) माझी (चतस्र:) चार संख्या (च) आणि चार संख्या मिळून (मे) माझी (अष्टी) आठ संख्या बनते. (च) नंतर (मे) माझी (अष्टौ) आठ संख्या (च) आणि चार संख्या मिळून (मे) माझी (द्वादश) बारा ही संख्या बनते. (च) पुन्हा (मे) माझी (द्वादश) बारा ही संख्या (च) आणि चार ही संख्या मिळून (मे) माझी (षोडश) सोळा ही संख्या बनते. (च) यानंतर (मे) माझी (षोडश) सोळा ही संख्या बनते. (च) यानंतर (मे) माझी (षोडश) सोळा ही संख्या बनते. (च) यानंतर (मे) माझी (षोडश) सोळा ही संख्या (च) आणि चार मिळून (मे) माझी (विंशति:) वीस ही संख्या बनते. (च) नंतर (मे) माझी (विंशति:) वीस ही संख्या (च) आणि चार मिळून (मे) माझी (चतुर्विंशति:) चोवीस ही संख्या तयार होते. (च) नंतर (मे) माझी (चतुर्विंशतिं:) चोवीस ही संख्या (च) चार संख्येशी मिळून (मे) माझी (अष्टाविंशति:) चोवीस ही संख्या (च) चार संख्येशी मिळून (मे) माझी (अष्टाविंशतिं:) अठ्ठावीस (च) आणि चार संख्या मिळून (मे) माझी (द्वात्रिंशत्) बत्तीस ही संख्या तयार होते. (च) पुन्हा (मे) माझी (द्वात्रिंशत्) बत्तीस (च) आणि चार संख्या मिळून (मे) माझी (षट्त्रिंशत्) छत्तीस संख्या बनते. (च) त्यानंतर (मे) माझी (षट्त्रिंशत्) छत्तीस ही संख्या (मे) माझ्या (च) चार संख्येशी मिळून (चत्वारिंशत्) चाळीस संख्या होते. (च) नंतर (मे) माझी (चत्वांशिंशत्) चाळीस संख्या होते. (च) नंतर (मे) माझी (चत्वारिंशत्) चाळीस संख्या होते. (च) नंतर (मे) माझी (चत्वारिंशत्) चाळीस संख्या (मे) माझ्या (च) चार संख्येशी मिळून (चतुश्चत्वारिंशत्) चव्वेचाळीस संख्या होते. (च) नंतर (मे) माझी (चतुश्चत्वारिंशत्) चव्वेचाळीस ही संख्या (च) आणि चार मिळून (मे) माझी (अष्टाचत्वारिंक्षत्) अठ्ठेचाळीस संख्या होते. (च) अशाप्रकारे याच पद्धतीने पुढेही होणार्‍या सर्व संख्या माझ्यासाठी (कल्पन्ताम्) हितकारी व्हाव्यात (गणितविद्येचे अधिकाधिक ज्ञान संपादित करून मी त्यापासून भरपूर लाभ प्राप्त करावेत, ही इच्छा) हा या मंत्राचा पहिला अर्थ आहे म्हणजे योग (बेरीज) पक्षाप्रमाणे होणारा अर्थ आहे. ॥25॥^आता मंत्राचा दुसरा अर्थ (वियोगपक्ष) (यज्ञेन) योगाच्या विपरीत (बेरजेच्या विरूद्ध) गणिताच्या अर्थात दानरुप वजा-बाकी नियमाने (च) आणि संख्यांमधून चार वजा केल्यामुळे (तयार होणार्‍या संख्या माझ्यासाठी) (कल्पन्ताम्) समर्थ वा हितकारी व्हाव्यात. उदाहरणार्थ-(मे) माझी (अष्टाचत्वारिंशत्) ४८ अठ्ठेचाळीस ही संख्या (च) चार वजा केल्यामुळे (मे) माझी (चतुश्चत्वारिंशत्) ४४ चव्वेचाळीस संख्या तयार होते. (च) पुन्हा (मे) माझी (चतुश्चत्वारिंशत्) चव्वेचाळीस संख्या (च) चार वजा केल्यामुळे (मे) माझी (चत्वारिंक्षत्) चाळीस संख्या होते (च) नंतर (मे) माझी (चत्वारिंशत्) चाळीस संख्या (च) चार वजा केल्यामुळे (मे) माझी (षट्त्रिंशत्) छत्तीस संख्या बनते. (च) नंतर (मे) माझी (षट्चिंशत्) छत्तीसही संख्या (च) चार वजा केल्यामुळे (मे) माझी द्वात्रिंशत्) बत्तीस संख्या होते. याप्रमाणे सर्व संख्यां विषयी जाणले पाहिजे. वियोग वा वजाबाकी या नियमाप्रमाणे मंत्राचा हा दुसर पक्ष आहे. ॥25॥^आता तिसरा पक्ष वा (गुणन नियमाप्रमाणे तिसरा अर्थ) (मे) माझी (चतस्र:) चार संख्या (च) आणि (मे) माझी (अष्टौ) आठ या संख्या गुणाकार केल्याने (३२ (बत्तीस) होते) (मे) माझी (अष्ट्रौ) आठ संख्या (च) आणि (मे) माझी (द्वादश) बारा ही संख्या (च) गुणाकारामुळे (९६ शहाण्णव) होते. (मे) माझी (द्वादश) बारा ही संख्या (च) आणि (मे) माझी (षोडश) सोळा संख्या (च) गुणाकारामुळे (१९२ एकशेब्याण्णव) बनते. नंतर (मे) माझी (षोडश) सोळा संख्या (च) आणि (मे) माझी (विंशति:) वीस संख्या गुणाकारामुळे (३२० तीनशेवीस होते) अशा पद्धतीने पुढील संख्या (यज्ञेन) वरीलप्रमाणे गुणन करीत गेल्यामुळे माझ्यासाठी (कल्पन्ताम्) लाभकारी व्हाव्यात. ॥25॥

    भावार्थ

    भावार्थ- मागील मंत्रात (क्र. २४ मधे) एक संख्येपासून आरंभ करून दोन संख्येच्या अंतराने होणार्‍या (योग आणि वियोगामुळे होणार्‍या विषयम संक्येच्या संदर्भात गणितीय नियम सांगितला आहे. पूर्वीच्या मंत्रात (क्र. २५) एक, दोन आणि संख्यांना सोडून चार संख्येपासून आरंभकरून चार संख्येच्या योग्य आणि वियोगामुळे (बेरीज व वजाबाकीमुळे होणार्‍या सम संख्यांच्या गणितीय नियमांचे प्रतिपादन केले आहे. या दोन्ही (क्र. २४ व क्र. २५) मंत्राद्वारे विषय संख्या आणि सम संख्या यांचे अंतर (व गणितीय नियम-व्यवस्था) ओळखून आपल्या बुद्धीच्या अनुकूल कल्पनेद्वारे सर्व गणितविद्या जाणून घ्यावी (वा घेता येईल) ॥25॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May my Four and my Eight, and my Eight and my Twelve, and my Twelve and my Sixteen, and my Sixteen and my Twenty, and my Twenty and my Twenty Four, and my Twenty Four and my Twenty Eight, and my Twenty Eight and my Thirty Two, and my Thirty Two and my Thirty Six, and my Thirty Six and my Forty, and my Forty and my Forty Four, and my Forty Four and my Forty Eight etc. increase or decrease by addition and subtraction.

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    Meaning

    By yajna, the process of addition and collection, may the numbers increase and be good and auspicious for me and for all: Four is mine, and four is mine, eight is mine. Eight is mine, and four, twelve is mine. Twelve is mine, plus four, sixteen is mine. Sixteen is mine, add four, and twenty is mine. Twenty is mine, and twenty four is mine. Twenty four is mine, and twenty eight is mine. Twenty eight is mine and thirty two is mine. Thirty two is mine, and thirty six is mine. Thirty six is mine, and forty is mine. Forty is mine, and forty four is mine. Forty four is mine, and forth eight is mine. And so on the numbers may increase till infinity by yajna, for me and for all for the good of life and joy. Also: By implication, the mantra can be applied to the process of yajna by ‘dana’, gifting away, subtraction, by four, from forty-eight down to four and so on. The mantra can also be applied to the process of multiplication. In fact, the mantra itself gives the multiplication table upto twelve times four and so on. So too the mantra may be interpreted as showing the process of division since it gives a table of the division of forty eight by four upto twelve times.

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    Translation

    May my four (feminine) and my eight, and my eight and my twelve, and my twelve and my sixteen, and my sixteen and my twenty, and my twenty and my twenty-four, and my twenty-four and my twenty-eight, and my twenty-eight and my thirty-two, and my thirty-two and my thirty-six, and my thirty-six and my forty, and my forty and my forty-four, and my forty-four and my forty-eight be secured by means of sacrifice. (1)

    Notes

    Multiplications of four are given in this verse, which is said to be the offerings with even numbers.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ সমাঙ্কগণিতবিষয়মাহ ॥
    এখন সম অঙ্কের গণিত বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(য়জ্ঞেন) সঙ্গতি করিতে অর্থাৎ যোগ করিতে (মে) আমার (চতস্রঃ) চারি সংখ্যা (চ) এবং চারি সংখ্যা (মে) আমার (অষ্টৌ) আট সংখ্যা (চ) পুনঃ (মে) আমার (অষ্টৌ) আট সংখ্যা (চ) এবং চারি (মে) আমার (দ্বাদশ) দ্বাদশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (দ্বাদশ) দ্বাদশ (চ) এবং চারি (মে) আমার (ষোডশ) ষোলো (চ) পুনঃ (মে) আমার (ষোডশ) ষোলো (চ) এবং চারি (মে) আমার (বিংশতিঃ) কুড়ি (চ) পুনঃ (মে) আমার (বিংশতিঃ) কুড়ি (চ) এবং চারি (মে) আমার (চতুর্বিংশতি) চব্বিশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (চতুর্বিংশতিঃ) চব্বিশ (চ) এবং চারি (মে) আমার (অষ্টাবিংশতিঃ) আঠাইশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (অষ্টবিংশতিঃ) আঠাইশ (চ) এবং চারি (মে) আমার (দ্বাত্রিংশৎ) বত্রিশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (দ্বাত্রিংশৎ) বত্রিশ (চ) এবং চারি (মে) আমার (ষট্ত্রিংশৎ) ছত্রিশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (ষট্ত্রিংশৎ) ছত্রিশ (চ) এবং চারি (মে) আমার (চত্বারিংশৎ) চল্লিশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (চত্বারিংশৎ) চল্লিশ (চ) এবং চারি (মে) আমার (চতুশ্চত্বারিংশৎ) চুয়াল্লিশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (চতুশ্চত্বারিংশৎ) চুয়াল্লিশ (চ) এবং চারি (মে) আমার (অষ্টাচত্বারিংশৎ) আটচল্লিশ (চ) আগেও উক্তবিধি দ্বারা সংখ্যা (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক, ইহা প্রথম যোগপক্ষ ॥ ২৫ ॥
    এখন দ্বিতীয়ঃ–(য়জ্ঞেন) যোগের বিপরীত দানরূপ বিয়োগমার্গ হইতে বিপরীত সংগৃহীত (চ) এবং সংখ্যা চারি চারির বিয়োগ দ্বারা যেমন (মে) আমার (কল্পন্তাম) সমর্থ হউক সেইরূপ (মে) আমার (অষ্টাচত্বারিংশৎ) আটচল্লিশ (চ) চারির বিয়োগ দ্বারা (মে) আমার (চতুশ্চত্বারিংশৎ) চুয়াল্লিশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (চতুশ্চত্বারিংশৎ) চুয়াল্লিশ (চ) চারির বিয়োগ দ্বারা (মে) আমার (চত্বারিংশৎ) চল্লিশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (চত্বারিংশৎ) চল্লিশ (চ) চারির দ্বারা (মে) আমার (ষট্ত্রিংশৎ) ছত্রিশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (ষট্ত্রিংশৎ) ছত্রিশ (চ) চারির বিয়োগ দ্বারা (মে) আমার (দ্বাত্রিংশৎ) বত্রিশ এই প্রকার সব সংখ্যা সম্পর্কে জানা দরকার । ইহা বিয়োগের দ্বারা দ্বিতীয় পক্ষ ॥ ২৫ ॥
    এখন তৃতীয় বক্ষঃ–(মে) আমার (চতস্রঃ) চারি সংখ্যা (চ) এবং (মে) আমার (অষ্টৌ) আট (চ) পরস্পর গুণী, (মে) আমার (অষ্টৌ) আট (চ) এবং (মে) আমার (দ্বাদশ) দ্বাদশ (চ) পরস্পর গুণী, (মে) আমার (দ্বাদশ) দ্বাদশ (চ) এবং (মে) আমার (ষোডশ) ষোলো (চ) পরস্পর গুণী (মে) আমার (ষোডশ) ষোলো (চ) এবং (মে) আমার (বিংশতিঃ) কুড়ি (চ) পরস্পর গুণী, এই প্রকার সংখ্যা আগেও (য়জ্ঞেন) উক্ত বার বার গুণন দ্বারা (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক । ইহা গুণন বিষয় দ্বারা তৃতীয় পক্ষ ॥ ২৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ– গত মন্ত্রে এক সংখ্যাকে লইয়া দুইয়ের যোগ-বিয়োগ দ্বারা বিষম সংখ্যা বলা হইয়াছে । ইহার পূর্বের মন্ত্রে ক্রমপূর্বক আগত এক, দুই ও তিন সংখ্যা বাদ দিয়া এই মন্ত্রে চারির যোগ বা বিয়োগ দ্বারা চতুর্থ সংখ্যাকে লইয়া সমসংখ্যা প্রতিপাদন করা হইয়াছে । এই দুটি মন্ত্র দ্বারা বিষম সংখ্যা ও সম সংখ্যার পার্থক্য বুঝিয়া বুদ্ধির অনুকূল কল্পনা দ্বারা সব গণিত বিদ্যা বলা দরকার ॥ ২৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    চত॑স্রশ্চ মে॒ऽষ্টৌ চ॑ মে॒ऽষ্টৌ চ॑ মে॒ দ্বাদ॑শ চ মে॒ দ্বাদ॑শ চ মে॒ ষোড॑শ চ মে॒ ষোড॑শ চ মে বিꣳশ॒তিশ্চ॑ মে বিꣳশ॒তিশ্চ॑ মে॒ চতু॑র্বিꣳশতিশ্চ মে॒ চতু॑র্বিꣳশতিশ্চ মে॒ऽষ্টাবি॑ꣳশতিশ্চ মে॒ऽষ্টাবি॑ꣳশতিশ্চ মে॒ দ্বাত্রি॑ꣳশচ্চ মে॒ দ্বাত্রি॑ꣳশচ্চ মে॒ ষট্ত্রি॑ꣳশচ্চ মে॒ ষট্ত্রি॑ꣳশচ্চ মে চত্বারি॒ꣳশচ্চ॑ মে চত্বারি॒ꣳশচ্চ মে॒ চতু॑শ্চত্বারিꣳশচ্চ মে॒ চতু॑শ্চত্বারিꣳশচ্চ মেऽষ্টাচ॑ত্বারিꣳশচ্চ মে য়॒জ্ঞেন॑ কল্পন্তাম্ ॥ ২৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    চতস্রশ্চেত্যস্য পূর্বদেবা ঋষয়ঃ । সমাঙ্কগণিতবিদ্যাবিদাত্মা দেবতা ।
    ভুরিক্ পংক্তিশ্ছন্দঃ । চতুর্বিꣳশতিশ্চেত্যুত্তরস্য নিচৃদাকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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