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यजुर्वेद अध्याय - 18

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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 65
    ऋषिः - विश्वकर्मर्षिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    58

    यत्र॒ धारा॒ऽअन॑पेता॒ मधो॑र्घृ॒तस्य॑ च॒ याः। तद॒ग्निर्वै॑श्वकर्म॒णः स्व॑र्दे॒वेषु॑ नो दधत्॥६५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑। धाराः॑। अन॑पेता॒ इत्यन॑पऽइताः। मधोः॑। घृ॒तस्य॑। च॒। याः। तत्। अ॒ग्निः। वै॒श्व॒क॒र्म॒ण इति॑ वैश्वऽकर्म॒णः। स्वः॑। दे॒वेषु॑। नः॒। द॒ध॒त् ॥६५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्र धाराऽअनपेता मधोर्घृतस्य च याः । तदग्निर्वैश्वकर्मणः स्वर्देवेषु नो दधत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र। धाराः। अनपेता इत्यनपऽइताः। मधोः। घृतस्य। च। याः। तत्। अग्निः। वैश्वकर्मण इति वैश्वऽकर्मणः। स्वः। देवेषु। नः। दधत्॥६५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 65
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह॥

    अन्वयः

    यत्र मधोर्घृतस्य च या अनपेता धारा विद्वद्भिः क्रियन्ते, तद्वैश्चकर्मणोऽग्निर्नो देवेषु स्वर्दधत्॥६५॥

    पदार्थः

    (यत्र) यज्ञे (धाराः) प्रवाहा (अनपेताः) नापेताः पृथग्भूताः (मधोः) मधुरगुणान्वितस्य द्रव्यस्य (घृतस्य) आज्यस्य (च) (याः) (तत्) ताभिः (अग्निः) पावकः (वैश्वकर्मणः) विश्वान्यखिलानि कर्माणि यस्मात् स एव (स्वः) सुखम् (देवेषु) दिव्येषु व्यवहारेषु (नः) अस्मभ्यम् (दधत्) दधाति। दधातेर्लेटो रूपम्॥६५॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या वेद्यादिकं निर्माय सुगन्धिमिष्टादियुक्तं बहुघृतमग्नौ जुह्वति, ते सर्वान् रोगान्निहत्यातुलं सुखं जनयन्ति॥६५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (यत्र) जिस यज्ञ में (मधोः) मधुरादि गुणयुक्त सुगन्धित द्रव्यों (च) और (घृतस्य) घृत के (याः) जिन (अनपेताः) संयुक्त (धाराः) प्रवाहों को विद्वान् लोग करते हैं, (तत्) उन धाराओं से (वैश्वकर्मणः) सब कर्म होने का निमित्त (अग्निः) अग्नि (नः) हमारे लिये (देवेषु) दिव्य व्यवहारों में (स्वः) सुख को (दधत्) धारण करता है॥६५॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य वेदि आदि को बना के सुगन्ध और मिष्टादियुक्त बहुत घृत को अग्नि में हवन करते हैं, वे सब रोगों का निवारण करके अतुल सुख को उत्पन्न करते हैं॥६५॥

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    विषय

    अन्न, राज्य, बल और पराक्रम की वृद्धि, राज्य का विद्वानों के बल पर संचालन ।

    भावार्थ

    ( यत्र ) जिस राज्य में से ( मधोः ) मधु के समान मधुर अन्न और जल की ( घृतस्य च ) और घी, दूध की ( याः ) जो (धाराः) धाराएं होती हैं वे कभी भी ( अनपेताः) जुदी न हों । इसी प्रकार ( मधोः ) शत्रु या दुष्ट पुरुषों के पीड़न, (घृतस्य च ) घृत, तेज, पराक्रम की ( धारा : ) राज्य को धारण करने वाली शक्तियां ( यत्र ) जिस राष्ट्र से कभी ( अनपेता: ) लुप्त न हों । ( तत् ) ऐसे ( स्वः) सुखकारी राज्य को (वैश्वकर्मणः अग्निः) राष्ट्र के सब उत्तम कर्मों के करने वाला प्रजापति, अग्रणी, विद्वान् शासक ( नः देवेषु ) हमारे विद्वानों के आधार पर ( दधत् ) स्थापित करे । शत० ९ । ५ । १ । ५० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यज्ञः । विराट अनुष्टुप । गान्धारः ॥

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    विषय

    यज्ञ व स्वर्ग

    पदार्थ

    १. (यत्र) = जब (मधोः) = मधुरादि गुणयुक्त सुगन्धित द्रव्यों की (घृतस्य च) = और घृत की (या:) = जो (धाराः) = धाराएँ हैं, वे (अनपेता:) = [ न अप इता:] दूर नहीं होती, अर्थात् जहाँ यज्ञों में मधुर हविर्द्रव्यों व घृत की आहुतियाँ निरन्तर पड़ती रहती हैं २. (तत्) = तब (वैश्वकर्मण:) = विश्वकर्मा - यज्ञादि उत्तम कर्मों को करनेवाले देवशिल्पियों का हितकारी (अग्निः) = वह उन्नति-साधक प्रभु (नः) = हमें (स्वः दधत्) = स्वर्ग में स्थापित करे तथा (देवेषु दधत्) = दिव्य गुणों में स्थापित करे।

    भावार्थ

    भावार्थ - जिस घर में निरन्तर मधुर हविर्द्रव्यों तथा घृत से यज्ञ चलते हैं, वहाँ स्वर्ग होता है, दिव्य गुणों की स्थापना होती है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जी माणसे वेदी बनवून सुगंधी पदार्थ व मिष्टान्न आणि घृत अग्नीत घालून हवन करतात ती सर्व रोगांचे निवारण करून अत्यंत सुख उत्पन्न करतात.

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    विषय

    मनुष्यांनी काय केले पाहिजे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - विद्वज्जन (यज्ञ) ज्या यज्ञामधे (मधो:) मधुर आदी गुणांनी युक्त आणि सुगंधित अशा प्राण्यांच्या (च) आणि (सृतस्य) तुपाच्या (वा:) ज्या (अमपेता:) सम्मिश्रित (धारा:) धारारुपाने आहुती देतात (तत्) त्या मधून द्रव्यांमुळे तसे घृताहुतीमुळे (वैश्वकर्मण:) सर्व कार्यांचा जो निमित्त ते (अग्नि:) अग्नी (न:) आमच्याकरिता (देवेषु) दिव्य कार्यामधे (आम्ही करीत असलेल्या परोपकाराची श्रेष्ठ कार्यामधे) (स्व:) सुख (दधत्) धारण करतो (द्रव्यांच्या आहुतीमुळे अग्नी आमच्या प्रपंच, उद्यम आदी कार्यात सहाय्यकारी होतो. यज्ञाग्नीमुळे वायू शुद्ध होऊन प्राण्यांचे जीवन सुखकर बनते) ॥62॥

    भावार्थ

    भावार्थ -जे लोक यज्ञवेदीचे निर्माण करून, तिथे यज्ञात सुगंध आणि मिष्ट गुणांनी युक्त पदार्थांसह ‘प्रभूत मात्रेत घृताहुती देतात, ते स्वत:च्या आणि इतरांच्या रोगांचे निवारण करून सर्वांकरिता अतुल सुख उत्पन्न करतात. ॥65॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    There were all never-failing streams of honey and butter flow, may the learned knower of all actions grant us happiness for acquiring noble traits.

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    Meaning

    Where streams of nectar honey flow uninterrupted and where flow streams of purest milk and ghee, there among the noblest souls, may Agni, lord of universal yajnic action, lead us into the heaven of bliss.

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    Translation

    Where there are never-exhausting streams of honey and melted butter, may the adorable Lord, the supreme architect, place us in the world of bliss among the enlightened ones. (1)

    Notes

    Anapetāḥ, अनुपक्षीणा:, never-exhausting.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যাঃ কিং কুর্য়ুরিত্যাহ ॥
    পুনঃ মনুষ্যদিগকে কী করা উচিত এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(য়ত্র) যে যজ্ঞে (মধোঃ) মধুরাদি গুণযুক্ত সুগন্ধিত দ্রব্য (চ) এবং (ঘৃতস্য) ঘৃতের (য়াঃ) যে সব (অনপেতাঃ) সংযুক্ত (ধারাঃ) প্রবাহকে বিদ্বান্গণ করেন (তৎ) সেই সব ধারা দ্বারা (বৈশ্বকর্মণঃ) সব কর্ম হওয়ার নিমিত্ত (অগ্নিঃ) অগ্নি (নঃ) আমাদের জন্য (দেবেষু) দিব্য ব্যবহারে (স্বঃ) সুখকে (দধৎ) ধারণ করে ॥ ৬৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যে সব মনুষ্য বেদি আদি তৈয়ার করিয়া সুগন্ধ ও মিষ্টাদিগুণযুক্ত বহু ঘৃতকে অগ্নিতে হবন করে তাহারা সব রোগের নিবারণ করিয়া অতুল সুখকে উৎপন্ন করে ॥ ৬৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়ত্র॒ ধারা॒ऽঅন॑পেতা॒ মধো॑ঘৃর্তস্॒য॑ চ॒ য়াঃ ।
    তদ॒গ্নির্বৈ॑শ্বকর্ম॒ণঃ স্ব॑র্দে॒বেষু॑ নো দধৎ ॥ ৬৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়ত্র ধারা ইত্যস্য বিশ্বকর্মর্ষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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