यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 4
ऋषिः - देवा ऋषयः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - निचृदत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
127
ज्यैष्ठ्यं॑ च म॒ऽआधि॑पत्यं च मे म॒न्युश्च॑ मे॒ भाम॑श्च॒ मेऽम॑श्च॒ मेऽम्भ॑श्च मे जे॒मा च॑ मे महि॒मा च॑ मे वरि॒मा च॑ मे प्रथि॒मा च॑ मे वर्षि॒मा च॑ मे द्राधि॒मा च॑ मे वृ॒द्धं च॑ मे॒ वृद्धि॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥४॥
स्वर सहित पद पाठज्यैष्ठ्य॑म्। च॒। मे॒। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। च॒। मे॒। म॒न्युः। च॒। मे॒। भामः॑। च॒। मे॒। अमः॑। च॒। मे॒। अम्भः॑। च॒। मे॒। जे॒मा। च॒। मे॒। म॒हि॒मा। च॒। मे॒। व॒रि॒मा। च॒। मे॒। प्र॒थि॒मा। च॒। मे॒। व॒र्षि॒मा। च॒। मे॒। द्रा॒घि॒मा। च॒। मे॒। वृ॒द्धम्। च॒। मे॒। वृद्धिः॑। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ज्यैष्ठ्यञ्च मेऽआधिपत्यञ्च मे मन्युश्च मे भामश्च मे मश्च मे म्भश्च मे महिमा च मे वरिमा च मे प्रथिमा च मे वर्षिमा च मे द्राघिमा च मे वृद्धञ्च मे वृद्धिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
ज्यैष्ठ्यम्। च। मे। आधिपत्यमित्याधिऽपत्यम्। च। मे। मन्युः। च। मे। भामः। च। मे। अमः। च। मे। अम्भः। च। मे। जेमा। च। मे। महिमा। च। मे। वरिमा। च। मे। प्रथिमा। च। मे। वर्षिमा। च। मे। द्राघिमा। च। मे। वृद्धम्। च। मे। वृद्धिः। च। मे। यज्ञेन। कल्पन्ताम्॥४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
मे ज्यैष्ठ्यं च म आधिपत्यं च मे मन्युश्च मे भामश्च मेऽमश्च मेऽम्भश्च मे जेमा च मे महिमा च मे वरिमा च मे प्रथिमा च मे वर्षिमा च मे द्राघिमा च मे वृद्धं च मे वृद्धिश्च यज्ञेन कल्पन्ताम्॥४॥
पदार्थः
(ज्यैष्ठ्यम्) प्रशस्यस्य भावः (च) उत्तमानि वस्तूनि (मे) (आधिपत्यम्) अधिपतेर्भावः (च) अधिपतिः (मे) (मन्युः) अभिमानः (च) शान्तिः (मे) (भामः) क्रोधः। भाम इति क्रोधनामसु पठितम्॥ (निघं॰२.१३) (च) सुशीलम् (मे) (अमः) न्यायेन प्राप्तो गृहादिपदार्थः (च) प्राप्तव्यः (मे) (अम्भः) उदकम्। अम्भ इत्युदकनामसु पठितम्॥ (निघं॰१.१२) (च) दुग्धादिकम् (मे) (जेमा) जेतुर्भावः (च) विजयः (मे) (महिमा) महतो भावः (च) प्रतिष्ठा (मे) (वरिमा) वरस्य श्रेष्ठस्य भावः (च) उत्तमाचरणम् (मे) (प्रथिमा) पृथोर्भावः (च) विस्तीर्णाः पदार्थाः (मे) (वर्षिमा) वृद्धस्य भावः (च) बाल्यम् (मे) (द्राघिमा) दीर्घस्य भावः (च) ह्रस्वत्वम् (मे) (वृद्धम्) प्रभूतं बहुरूपं धनादिकम् (च) स्वल्पमपि (मे) (वृद्धिः) वर्द्धन्ते यया सत्क्रियया सा (च) तज्जन्यं सुखम् (मे) (यज्ञेन) धर्मपालनेन (कल्पन्ताम्) समर्था भवन्तु॥४॥
भावार्थः
हे सखायो जनाः! यूयं यज्ञसिद्धये सर्वस्य जगतो हिताय च प्रशंसितानि वस्तूनि संयुङ्ग्ध्वम्॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
(मे) मेरी (ज्यैष्ठ्यम्) प्रशंसा (च) और उत्तम पदार्थ (मे) मेरा (आधिपत्यम्) स्वामीपन (च) और स्वकीय द्रव्य (मे) मेरा (मन्युः) अभिमान (च) और शान्ति (मे) मेरा (भामः) क्रोध (च) और उत्तम शील (मे) मेरा (अमः) न्याय से पाये हुए गृहादि (च) और पाने योग्य पदार्थ (मे) मेरा (अम्भः) जल (च) और दूध, दही, घी आदि पदार्थ (मे) मेरा (जेमा) जीत का होना (च) और विजय (मे) मेरा (महिमा) बड़प्पन (च) प्रतिष्ठा (मे) मेरी (वरिमा) बड़ाई (च) और उत्तम वर्त्ताव (मे) मेरा (प्रथिमा) फैलाव (च) और फैले हुए पदार्थ (मे) मेरा (वर्षिमा) बुढ़ापा (च) और लड़काई (मे) मेरी (द्राघिमा) बढ़वार (च) और छुटाई (मे) मेरा (वृद्धम्) प्रभुता को पाया हुआ बहुत प्रकार का धन आदि पदार्थ (च) और थोड़ा पदार्थ तथा (मे) मेरा (वृद्धिः) जिस अच्छी क्रिया से वृद्धि को प्राप्त होते हैं, वह (च) और उससे उत्पन्न हुआ सुख उक्त समस्त पदार्थ (यज्ञेन) धर्म की रक्षा करने से (कल्पन्ताम्) समर्थित होवें॥४॥
भावार्थ
हे मित्रजनो! तुम यज्ञ की सिद्धि और समस्त जगत् के हित के लिये प्रशंसित पदार्थों को संयुक्त करो॥४॥
विषय
यज्ञ से बड़ाई, उच्च पद, तेज, सहयोग, न्याय, उत्तम गुण, विजय, बड़प्पन, कीर्ति, वृद्धि आदि की प्राप्ति ।
भावार्थ
( मे ) मुझे ( ज्येष्ठयं च ) ज्येष्ठता, बड़ाई, ( आधिपत्यं च ) अधिपाद का पद, (मन्युः च) मन्यु, मानस, कोप, ज्ञान और आत्म- मान, ( भाम: च ) क्रोध, दुष्टों पर असहनशीलता, ( अम: च ) न्यायोचित प्राप्त गृह आदि पदार्थ ( अम्भः च ) जल, उसके समान शीतलता और समुद्र के समान गम्भीरता, (जेमा च ) विजय और ऐश्वर्य, ( महिमा च ) महत्त्व, (बरिमा च ) श्रेष्ठता, ( प्रथिमा च ) विस्तृत गृह, क्षेत्र, राज्य आदि, (वर्षिमा च ) ज्ञान, अनुभव, आयु और पद की वृद्धि, ( द्वाघिमा च ) दीर्घता, अर्थपरम्परा, ( वृद्धं च ) बढ़ा हुआ बल और धन, ( वृद्धिः च) विद्या आदि गुणों की उन्नति, बढ़ोतरी, ये समस्त पदार्थ मेरे ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) परमेश्वर की कृपा और सत्कर्म रूप यज्ञ से मुझे प्राप्त हों ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
निचृदत्यष्टिः । गान्धारः ॥
विषय
ज्यैष्ठ्य+ वृद्धि
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जीवन को सशक्त बनाकर (ज्यैष्ठयं च मे) = मैं ज्येष्ठत्व का सम्पादन करनेवाला बनूँ और इसी ज्येष्ठता - सम्पादन के लिए (आधिपत्यं च मे) = मेरा आधिपत्य सम्पन्न हो, अर्थात् मैं इन्द्रियों, मन व बुद्धि का अधिपति बनूँ। २. इस आधिपत्य से (मन्युः च मे) = मेरा ज्ञान सशक्त हो तथा (भामः च मे) = तेजस्विता [Brightness, Lustre, Splendour] मुझे प्राप्त हो। ३. (अमः च मे) = मेरी प्राणशक्ति बल सम्पन्न हो और (अम्भः च मे) = [तुष्टि:] मुझमें आत्मसन्तोष विकसित हो, अथवा सफलता [Fruitfulness ] मेरी संगिनी बने । ४. (जेमा च मे) = मैं सदा विजयी बनूँ, जय - सामर्थ्य-सम्पन्न बनूँ और (महिमा च मे) = महत्त्व को प्राप्त करूँ। ५. (वरिमा च मे) = [उरोर्भाव :] = प्रजादि से मैं विशाल बनूँ । (प्रथिमा च मे) = [पृथोर्भावः] मेरे गृह-क्षेत्रादि का भी विस्तार हो। ६. (वर्षिमा च मे) = [वृद्धस्य भावः] मुझे दीर्घ जीवन प्राप्त हो और (द्राघिमा च मे) = [ दीर्घस्य भावः] मैं अविच्छिन्न वंशवाला, प्रजाओं से दीर्घकाल तक चलनेवाला होऊँ। ७. (वृद्धं च मे) = मुझे प्रभूत अन्न-धनादि प्राप्त हो और (वृद्धिः च मे कल्पन्ताम्) = विद्यादि गुणों से मेरा उत्कर्ष (यज्ञेन) = यज्ञ से, प्रभु के साथ मेल करने से सम्पन्न हो ।
भावार्थ
भावार्थ- मैं जीवन में ज्येष्ठता का सम्पादन करूँ। ज्ञानी व तेजस्वी बनूँ । प्राणशक्ति - सम्पन्न व आत्मसन्तोषवाला होऊँ । विजय व महत्त्व को प्राप्त करूँ, परिवार व सम्पत्ति से बढूँ, दीर्घ जीवन व वंश - विस्तारवाला होऊँ। धन, विद्यादि गुणों से उत्कृष्ट बनूँ ।
मराठी (2)
भावार्थ
हे मित्रांनो ! तुम्ही यज्ञाच्या सिद्धीसाठी व संपूर्ण जगाच्या हितासाठी चांगले पदार्थ एकत्रित करा.
विषय
पुन्हा तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (उपासक म्हणत आहे) (मे) माझी (ज्यैष्ठ्यम्) प्रशंसा (कीर्ती) (च) आणि माझे उत्तम पदार्थ, तसेच (मे) माझे (अधिपत्यम्) स्वामित्व (अधिकार (च) आणि माझी स्वत:ची धन-संपदा (मला सुखकारी व्हावी) (मे) माझे (मन्यु:) स्वाभिमान (च) आणि शांती (शांतवृत्ती) तसेच (मे) माझे (भाम:) क्रोध (न) आणि उत्तम चारित्र्य (मला प्राप्त व्हावेत) (मे) माझे (अम:) न्याय मार्गाने प्राप्त गृह (च) आणि इतर प्राप्तव्य पदार्थ तसेच (मे) माझे (अम्भ:) जल (वापरातील पाणी) (च) आणि दूध, दही, आदी पदार्थ (मला धर्मानुसार प्राप्त होत राहावेत) (मे) माझे (जेमा) विजय प्राप्त करण्याची भावना वा तीव्र इच्छा (च) आणि प्रत्यक्षात प्राप्त केलेले विजय तसेच) (मे) माझे (महिमा) मोठेपण (च) आणि माझी प्रतिष्ठा, (मे) माझे (वरिमा) श्रेष्ठत्व (च) आणि तदनुकूल आचरण (मला धर्माकडे नेणारे असो) (मे) माझा (प्रथिमा) विस्तार (संपत्तीचा प्रसार) (च) आणि माझी दूरपर्यंत (विस्तृत भूमी, भवन आदी पसरलेले) पदार्थ) तसेच (मे) माजे (वर्षिमा) वृद्धत्व (च) आणि बाल्य, तसेच (मे) माझे (द्राधिमा) मोठेपण (च) आणि लहानपण (मला धर्माकडे नेणारे होवोत) (मे) माझी (वृद्धम्) प्रभुता वा स्वामित्व असलेले विविध प्रकारचे धनू आदी पदार्थ (च) आणि लहान-सहान पदार्थ देखील (मे) मला (वृद्धि:) ज्या सदाचरणामुळे प्राप्त होतात वा वाढतात (च) आणि त्याद्वारे उत्पन्न सर्व सुखकारी पदार्थ मला (यज्ञेन) धर्माचरणामुळे (कल्पन्ताम्) प्राप्त व्हावेत (मला अनुकूल असावेत) ॥4॥
भावार्थ
भावार्थ - मित्र हो, तुम्ही यज्ञाचे आयोजन करीत जा आणि समस्त संसाराचे हित करणार्या उत्तम पदार्थांची (निर्मिती वा) संग्रह करीत जा ॥4॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May my pre-eminence and nice objects, my over lordship and property, my righteous indignation and tranquillity of mind, my angry passion and noble behaviour, my just possessions and acquirable objects, my coolness like water, and my milk, curd and butter, my victorious power and victory, my greatness and honour, my magnanimity and excellent conduct, my abundance and vast objects, my old age and youth, the continuity of my family and its smallness, my increase of riches and penury, my amelioration and consequent happiness prosper through religious practices.
Meaning
By yajna, joint action and observance of Dharma and law, community and participative discipline of my freedom : my fame and my wealth, my self-rule and my ruler, my passion and my love of peace, my righteous anger and moral discipline, my honour and my sense of justice, my waters and my fruitfulness, my valour and my victories, my grandeur and my reputation, my greatness and my conduct, my expansion and my domain, my seniority and my humility, my loftiness and my depth, my riches and sense of values, my growth and sense of limitations, all these may be strong and firm, grow and be good for me and for all, by yajna.
Translation
May my supremacy and my overlordship, my righteous wrath and my anger, my indomitability and my impetuousness, my capacity to win and my grandeur, my sublimity and my prosperity, my long life and my large family, my abundance of wealth and my intellectual growth be secured by means of sacrifice. (1)
Notes
Amaḥ, न मीयते यत् तत् अम:, indomitablility. Ambhaḥ, power; impetuousness; fruitfulness. Jema,जयसामर्थ्यं , capacity to win. Varimā, largeness of progeny. Prathimā, largeness of assets.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–(মে) আমার (জৈষ্ঠ্যম্) প্রশংসা (চ) এবং উত্তম পদার্থ (মে) আমার (আধিপত্যম্) স্বামীত্ব (চ) এবং স্বকীয় দ্রব্য (মে) আমার (মন্যুঃ) অভিমান (চ) এবং শান্তি (মে) আমার (ভামঃ) ক্রোধ (চ) এবং উত্তম শীল (মে) আমার (অমঃ) ন্যায়পূর্বক প্রাপ্ত গৃহাদি (চ) এবং পাওয়ার যোগ্য পদার্থ (মে) আমার (অম্ভঃ) জল (চ) এবং দুগ্ধ, দধি, ঘৃতাদি পদার্থ (মে) আমার (জেমা) জিৎ হওয়া (চ) এবং বিজয় (মে) আমার (মহিমা) মহিমা (চ) প্রতিষ্ঠা (মে) আমার (বরিমা) গরিমা (চ) এবং উত্তম আচরণ (মে) আমার (প্রথিমা) বিস্তার (চ) এবং বিস্তৃত পদার্থ (মে) আমার (বর্ষিমা) বৃদ্ধত্ব (চ) এবং বাল্যত্ব (মে) আমার (দ্রাঘিমা) দীর্ঘভাব (চ) এবং হ্রস্বত্ব (মে) আমার (বৃদ্ধম্) প্রভুত্ব প্রাপ্ত বহু প্রকারের ধনাদি পদার্থ (চ) এবং কিঞ্চিৎ পদার্থ তথা (মে) আমার (বৃদ্ধিঃ) যে উত্তম ক্রিয়া দ্বারা বৃদ্ধি প্রাপ্ত হয় উহা (চ) এবং উহা দ্বারা উৎপন্ন সুখ উক্ত সমস্ত পদার্থ (য়জ্ঞেন) ধর্মের রক্ষা করিবার দ্বারা (কল্পন্তাম্) সমর্থিত হউক্ ॥ ৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–হে মিত্রগণ! তোমরা যজ্ঞের সিদ্ধি এবং সমস্ত জগতের হিতের জন্য প্রশংসিত পদার্থকে সংযুক্ত কর ॥ ৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
জ্যৈষ্ঠ্যং॑ চ ম॒ऽআধি॑পত্যং চ মে ম॒ন্যুশ্চ॑ মে॒ ভাম॑শ্চ॒ মেऽম॑শ্চ॒ মেऽম্ভ॑শ্চ মে জে॒মা চ॑ মে মহি॒মা চ॑ মে বরি॒মা চ॑ মে প্রথি॒মা চ॑ মে বর্ষি॒মা চ॑ মে দ্রাঘি॒মা চ॑ মে বৃ॒দ্ধং চ॑ মে॒ বৃদ্ধি॑শ্চ মে য়॒জ্ঞেন॑ কল্পন্তাম্ ॥ ৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
জ্যৈষ্ঠ্যং চেত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । প্রজাপতির্দেবতা । নিচৃদত্যষ্টিশ্ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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