यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 36
ऋषिः - देवा ऋषयः
देवता - रसविद्विद्वान् देवता
छन्दः - आर्ष्युनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
167
पयः॑ पृथि॒व्यां पय॒ऽओष॑धीषु॒ पयो॑ दि॒व्यन्तरि॑क्षे॒ पयो॑ धाः। पय॑स्वतीः प्र॒दिशः॑ सन्तु॒ मह्य॑म्॥३६॥
स्वर सहित पद पाठपयः॑। पृ॒थि॒व्याम्। पयः॑। ओष॑धीषु। पयः॑। दि॒वि। अ॒न्तरि॑क्षे। पयः॑। धाः॒। पय॑स्वतीः। प्र॒दिश॒ इति॑ प्र॒ऽदिशः॑। स॒न्तु॒। मह्य॑म् ॥३६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पयः पृथिव्याम्पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः । पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
पयः। पृथिव्याम्। पयः। ओषधीषु। पयः। दिवि। अन्तरिक्षे। पयः। धाः। पयस्वतीः। प्रदिश इति प्रऽदिशः। सन्तु। मह्यम्॥३६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्याः जलरसविदः स्युरित्याह॥
अन्वयः
हे विद्वंस्त्वं पृथिव्यां यत्पय ओषधीषु यत्पयो दिव्यन्तरिक्षे यत्पयो धास्तत्सर्वं पयोऽहमपि धरामि। याः प्रदिशः पयस्वतीस्तुभ्यं सन्तु, ता मह्यमपि भवन्तु॥३६॥
पदार्थः
(पयः) जलरसश्च (पृथिव्याम्) (पयः) (ओषधीषु) (पयः) (दिवि) शुद्धे प्रकाशे (अन्तरिक्षे) सूर्यपृथिव्योर्मध्ये (पयः) रसम् (धाः) दधीथाः (पयस्वतीः) पयो बहुरसो विद्यते यासु ताः (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशः (सन्तु) (मह्यम्)॥३६॥
भावार्थः
ये मनुष्या जलादिसंयुक्तेभ्यः पृथिव्यादिभ्यः उत्तमान्नान् रसांश्च संगृह्य खादन्ति पिबन्ति च, तेऽरोगा भूत्वा सर्वासु दिक्षु कार्यं साद्धुं गन्तुमागन्तुं वा शक्नुवन्ति, दीर्घायुषश्च जायन्ते॥३६॥
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य जल के रस को जानने वाले हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वान्! तू (पृथिव्याम्) पृथिवी पर जिस (पयः) जल वा दुग्ध आदि के रस (ओषधीषु) ओषधियों में जिस (पयः) रस (दिवि) शुद्ध निर्मल प्रकाश वा (अन्तरिक्षे) सूर्य और पृथिवी के बीच में जिस (पयः) रस को (धाः) धारण करता है, उस सब (पयः) जल वा दुग्ध के रस को मंै भी धारण करूं, जो (प्रदिशः) दिशा-विदिशा (पयस्वतीः) बहुत रस वाली तेरे लिये (सन्तु) हों, वे (मह्यम्) मेरे लिये भी हों॥३६॥
भावार्थ
जो मनुष्य बल आदि पदार्थों से युक्त पृथिवी आदि से उत्तम अन्न और रसों का संग्रह करके खाते और पीते हैं, वे नीरोग होकर सब विद्याओं में कार्य की सिद्धि कर तथा जा आ सकते और बहुत आयु वाले होते हैं॥३६॥
पदार्थ
पदार्थ = हे परमात्मन् ! आप कृपा करके ( पृथिव्याम् ) = पृथिवी में ( पयः ) = पुष्टिकारक रस को ( धाः ) = स्थापित करें। ऐसे ही ( ओषधीषु ) = ओषधियों में ( दिवि ) = द्युलोक में, और ( अन्तरिक्षे ) = मध्य लोक में ( पयः धाः ) = पौष्टिक रस स्थापित करें ( प्रदिशः ) = समस्त दिशाएँ ( मह्यम् ) = मेरे लिए ( पयस्वती: ) = पौष्टिक रस से पूर्ण ( सन्तु ) = होवें ।
भावार्थ
भावार्थ = हे सबके पालन पोषण कर्ता जगदीश्वर! आप, अपने पुत्र हम सबपर कृपा करें कि आपकी नियम व्यवस्था के अनुसार जहाँ-जहाँ हमारा निवास हो, वहाँ-वहाँ हम अन्नादिकों के पौष्टिक रस से पुष्ट हुए, आपके स्मरण और उपासना में तत्पर रहँ पृथिवी में, द्युलोक वा मध्य लोक में और पूर्व पश्चिमादि सब दिशाओं में रहते, आपकी प्रेमपूर्वक भक्ति, प्रार्थना, उपासना करते हुए सदा आनन्द में रहें
विषय
ऐश्वर्यवृद्धि के लिये राजा से प्रार्थना ।
भावार्थ
हे (अग्ने) अग्ने ! सूर्य ! तेजस्विन् ! परमेश्वर ! विद्वन् ! तू ( पृथिव्याम् ) पृथिवी में ( ओषधीषु ) ओषधियों में (दिवि ) धोलोक, आकाश या सूर्यप्रकाश में और ( अन्तरिक्षे ) अन्तरिक्ष, वायु या जल में ( पयः ) पुष्टिकारक रस और जल को ( धाः ) स्थापित कर । ( प्रदिशः ) समस्त दिशाएं (मह्यम् ) मेरे लिये ( पयस्वती: ) पुष्टिकारक रस से पूर्ण (सन्तु) हों ।विद्वान् पृथिवी ओषधि, सूर्य और वायु में से रस या सार बल को ग्रहण करें । राजा, प्रजाजन समस्त दिशाओं से अन्न आदि ग्रहण करें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋष्यादि पूर्ववत् । अनुष्टुप् ।
विषय
आप्यायन
पदार्थ
१. मेरे लिए (पृथिव्याम्) = पृथिवी में (पयः) = आप्यायन हो । (ओषधीषु) = पृथिवी से उत्पन्न इन ओषधियों में आप्यायनकारी रस हो । २. (पयः दिवि) - इस द्युलोक में भी सूर्यरश्मियों के द्वारा मेरे लिए आप्यायन व वर्धन हो । ३. हे प्रभो! आप कृपा करके (अन्तरिक्षे) =मे घों के आधारभूत अन्तरिक्ष में भी (पयः धा:) = आप्यायन का धारण कीजिए। यह अन्तरिक्षलोक भी मेरे लिए आप्यायन करनेवाला हो। वृष्टि के द्वारा यह उत्तम ओषधियों को प्राप्त कराके मेरे सब अङ्गों में रस का सञ्चार करे। ४. इस प्रकार (मह्यम्) = मेरे लिए (प्रदिशः) = ये प्रकृष्ट दिशाएँ (पयस्वतीः सन्तु) = आप्यायनवाली हों। मेरा सारा वातावरण ही आप्यायन से परिपूर्ण हो। यह सब विश्व मेरे साथ शान्ति में हो और इस प्रकार मेरे वर्धन का कारण बने।
भावार्थ
भावार्थ- पृथिवी, ओषधियाँ, द्युलोक, अन्तरिक्ष व सब प्रकृष्ट दिशाएँ मेरा आप्यायन करनेवाली हों। अब इस आप्यायन ही आप्यायनवाले व्यक्ति का राज्याभिषेक करते हैं -
मराठी (2)
भावार्थ
जी माणसे जलांनीयुक्त असलेल्या पृथ्वीवरील उत्तम अन्न व (जल, दुग्ध वगैरे) रसांचा संग्रह करून खान, पान करतात ती निरोगी बनतात. अशी माणसे दशदिशांना जाणे-येणे करून कार्य सिद्ध करू शकतात व दीर्घायू बनतात.
विषय
मनुष्यांनी जलाच्या रसांना जाणावे (पृथ्वीवरील जल आणि इतर रसांचे उपयोग कोणते, हे जाणून घ्यावे) पुढील मंत्रात या विषयी-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (रसज्ञ वैद्य) तुम्ही (पृथिव्याम्) या पृथ्वीवरील (पय:) जलाचे, दुग्ध आदी रसांचे मिश्रण ज्या (पय:) रसाला (दिनी) स्वच्छ प्रकाशमय अवकाशातून अथवा (अन्तरिक्षे) सूर्यातून वा पृथ्वीतून ज्या (पय:) रसाचे ग्रहण करता (आकाश, पृथ्वी, भूगर्भ आदीतून वनस्पतीचे रस ग्रहण करता आणि त्यातून रोगनिवारक औषधी तयार करता) त्या सर्व (पय:) रसाला जल आणि दूध आदी रसाला मी देखील धारण करावे (औषधीची निर्मिती करावी वा त्यांचे सेवन करावे ) (प्रदिश:) सर्व दिशा-उपशि (पदस्वती:) विविध रसांनी पतिपूर्ण (सन्तु) असाव्यात आणि तुमच्याप्रमाणे (मह्यम्) माझ्याकरिताही त्या तशा (रसपूर्ण) असाव्यात. ॥36॥
भावार्थ
missing
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person store milk in plants, water in the sky and water in the air. Teeming with milk for me be all the regions.
Meaning
Agni, man of medicinal herbs and juices, take on, hold on to, the juices and tonics in the earth, in the herbs, in the regions of light and in the sky and study them. And may all the worlds and directions of space be full of juices and tonics for me too.
Translation
О adorable Lord, for me provide milk on the earth, milk in the herbs, milk in the sky and milk in the midspace. May all the regions be full of milk for me. (1)
Notes
Payaḥ, दुग्धं, रसं, जलं, वा milk, sap or water.
बंगाली (2)
विषय
মনুষ্যাঃ জলরসবিদঃ স্যুরিত্যাহ ॥
মনুষ্য জলের রসের জ্ঞাতা হইবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে বিদ্বান্! তুমি (পৃথিব্যাম্) পৃথিবীর উপরে যে (পয়ঃ) জল বা দুগ্ধাদির রস (ওষধীষু) ওষধিসকলের মধ্যে যে (পয়ঃ) রস (দিবি) শুদ্ধ নির্মল প্রকাশ বা (অন্তরিক্ষে) সূর্য্য ও পৃথিবীর মধ্যে যে (পয়ঃ) রসকে (ধাঃ) ধারণ করে সেইসব (পয়ঃ) জল বা দুগ্ধের রসকে আমিও ধারণ করি যাহা (প্রদিশঃ) দিক-বিদিক্ (পয়স্বতীঃ) বহু রস যুক্তা তোমার জন্য (সন্তু) হউক সেগুলি (মহ্যম্) আমার জন্যও হউক ॥ ৩৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–যে সব মনুষ্য জলাদি পদার্থসমূহের সঙ্গে যুক্ত পৃথিবী আদি হইতে উত্তম অন্ন ও রসের সংগ্রহ করিয়া খায় ও পান করে তাহারা নীরোগ হইয়া সকল বিদ্যা সমূহে কার্য্যের সিদ্ধি করে তথা যাতায়াত করিতে পারে এবং বহু আয়ু যুক্ত হয় ॥ ৩৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
পয়ঃ॑ পৃথি॒ব্যাং পয়॒ऽওষ॑ধীষু॒ পয়ো॑ দি॒ব্য᳕ন্তরি॑ক্ষে॒ পয়ো॑ ধাঃ ।
পয়॑স্বতীঃ প্র॒দিশঃ॑ সন্তু॒ মহ্য॑ম্ ॥ ৩৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
পয়ঃ পৃথিব্যামিত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । রসবিদ্বিদ্বান্ দেবতা । আর্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
পয়ঃ পৃথিব্যাং পয় ওষধীষু পয়ো দিব্যন্তরিক্ষে পয়ো ধাঃ ।
পয়স্বতীঃ প্রদিশঃ সন্তু মহ্যম্।। ২১।।
(যজু ১৮।৩৬)
পদার্থঃ হে পরমাত্মা! তুমি কৃপা করে (পৃথিব্যাম্) পৃথিবীতে (পয়ঃ) পুষ্টিকারক রস (ধাঃ) স্থাপিত করো। ঐরূপ (পয়ঃ) পুষ্টিকারক রস (ওষধীষু) ঔষধিতে, (পয়ঃ) পুষ্টিকারক রস (দিবি) দ্যুলোকে এবং (অন্তরিক্ষে) মধ্য লোকে (পয়ঃ ধাঃ) পৌষ্টিক রস স্থাপিত করো। (প্রদিশঃ) সকল দিশা (মহ্যম্) আমার জন্য (পয়স্বতীঃ) পৌষ্টিক রস দ্বারা পূর্ণ (সন্তু) হোক।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে স্বয়ং পালনকর্তা জগদীশ! তুমি নিজের পুত্রদের উপর কৃপা করো, তোমার নিয়ম ব্যবস্থার অনুসারে এখানে আমাদের নিবাস হোক। এখানে আমরা ঔষধির পৌষ্টিক রসে পুষ্ট হয়ে তোমার স্মরণ এবং উপাসনাতে তৎপর থাকি। পৃথিবীতে, দ্যুলোকে বা মধ্য লোকে এবং পূর্ব-পশ্চিমাদি সকল দিশাতে ব্যাপ্ত তোমার প্রেমপূর্বক ভক্তি, প্রার্থনা ও উপাসনা করে সদা আনন্দে থাকি।। ২১।।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal