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यजुर्वेद अध्याय - 18

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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 2
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भुरितिजगती स्वरः - निषादः
    223

    प्रा॒णश्च॑ मेऽपा॒नश्च॑ मे व्या॒नश्च॒ मेऽसु॑श्च मे चि॒त्तं च॑ म॒ऽआधी॑तं च मे॒ वाक् च॑ मे॒ मन॑श्च मे॒ चक्षु॑श्च मे॒ श्रोत्रं॑ च मे॒ दक्ष॑श्च मे॒ बलं॑ च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒णः। च॒। मे॒। अ॒पा॒न इत्य॑पऽआ॒नः। च॒। मे॒। व्या॒न इति॑ विऽआ॒नः। च॒। मे॒। असुः॑। च॒। मे॒। चि॒त्तम्। च॒। मे॒। आधी॑त॒मित्याऽधी॑तम्। च॒। मे॒। वाक्। च॒। मे॒। मनः॑। च॒। मे॒। चक्षुः॑। च॒। मे॒। श्रोत्र॑म्। च॒। मे। दक्षः॑। च॒। मे॒। बलम्। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राणश्च मे पानश्च मे व्यानश्च मे सुश्च मे चित्तञ्च म आधीतञ्च मे वाक्च मे मनश्च मे चक्षुश्च मे श्रोत्रञ्च मे दक्षश्च मे बलञ्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्राणः। च। मे। अपान इत्यपऽआनः। च। मे। व्यान इति विऽआनः। च। मे। असुः। च। मे। चित्तम्। च। मे। आधीतमित्याऽधीतम्। च। मे। वाक्। च। मे। मनः। च। मे। चक्षुः। च। मे। श्रोत्रम्। च। मे। दक्षः। च। मे। बलम्। च। मे। यज्ञेन। कल्पन्ताम्॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    मे प्राणश्च मेऽपानश्च मे व्यानश्च मेऽसुश्च मे चित्तं म आधीतं च मे वाक् च मे मनश्च मे चक्षुश्च मे श्रोत्रं च मे दक्षश्च मे बलं च यज्ञेन कल्पन्तां समर्था भवन्तु॥२॥

    पदार्थः

    (प्राणः) हृदिस्थो वायुः (च) उदानः कण्ठदेशस्थः पवनः (मे) (अपानः) नाभेरधोगमी वातः (च) समानो नाभिसंस्थितो वायुः (मे) (व्यानः) शरीरस्य सर्वेषु संधिषु व्याप्तः पवनः (च) धनञ्जयः (मे) (असुः) नागादिर्मरुत् (च) अन्ये वायवः (मे) (चित्तम्) स्मृतिः (च) बुद्धिः (मे) (आधीतम्) समन्ताद् धृतिर्निश्चयवृत्तिः (च) रक्षितम् (मे) (वाक्) वाणी (च) श्रवणम् (मे) (मनः) संकल्पविकल्पात्मिका वृत्तिः (च) अहङ्कारः (मे) (चक्षुः) चक्षे पश्यामि येन तन्नेत्रम् (च) प्रत्यक्षप्रमाणम् (मे) (श्रोत्रम्) शृणोमि येन तत् (च) आगमप्रमाणम् (मे) (दक्षः) चातुर्य्यम् (च) सामयिकं भानम् (मे) (बलम्) (च) पराक्रमः (मे) (यज्ञेन) धर्मानुष्ठानेन (कल्पन्ताम्)॥२॥

    भावार्थः

    मनुष्याः ससाधनान् प्राणादीन् धर्मानुष्ठानाय नियोजयन्तु॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (मे) मेरा (प्राणः) हृदयस्थ जीवनमूल (च) और कण्ठ देश में रहने वाला पवन (मे) मेरा (अपानः) नाभि से नीचे को जाने (च) और नाभि में ठहरने वाला पवन (मे) मेरा (व्यानः) शरीर की सन्धियों में व्याप्त (च) और धनञ्जय जो कि शरीर के रुधिर आदि को बढ़ाता है, वह पवन (मे) मेरा (असुः) नाग आदि प्राण का भेद (च) तथा अन्य पवन (मे) मेरी (चित्तम्) स्मृति अर्थात् सुधि रहनी (च) और बुद्धि (मे) मेरा (आधीतम्) अच्छे प्रकार किया हुआ निश्चित ज्ञान (च) और रक्षा किया हुआ विषय (मे) मेरी (वाक्) वाणी (च) और सुनना (मे) मेरी (मनः) संकल्प-विकल्प रूप अन्तःकरण की वृत्ति (च) अहङ्कारवृत्ति (मे) मेरा (चक्षुः) जिससे कि मैं देखता हूं, वह नेत्र (च) और प्रत्यक्ष प्रमाण (मे) मेरा (श्रोत्रम्) जिससे कि मैं सुनता हूं, वह कान (च) और प्रत्येक विषय पर वेद का प्रमाण (मे) मेरी (दक्षः) चतुराई (च) और तत्काल भान होना तथा (मे) मेरा (बलम्) बल (च) और पराक्रम ये सब (यज्ञेन) धर्म के अनुष्ठान से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य लोग साधनों के सहित अपने प्राण आदि पदार्थों को धर्म के आचरण करने में संयुक्त करें॥२॥

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    विषय

    यज्ञ द्वारा प्राण आदि बल, वाणी आदि सामर्थ्य और चक्षु आदि इन्द्रियों के सामर्थ्यवान् होने की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    ( मे ) मुझे ( प्राणः च) प्राण, जो शरीर में नाभि से ऊपर गति करता है, ( अपान: च ) अपान, जो नाभि से नीचे विचरता है, ( व्यानः च) व्यान, शरीर की सब संधियों में व्यापक और मुख्य नाभिदेश में स्थित है, ( असु: च ) असु, नाग कूर्म आदि नाम वायु जो वमन आदि वेग करता, रोग-परमाणुओं को बल से बाहर फेंकता एवं बल के अन्य कार्यों में सहायक है, ( चित्तं च ) चित्त, स्मरण करने वाली शक्ति, ( आधीतं च ) बाह्य विषयों का ज्ञान और निश्चयकारिणी बुद्धि, धृति, ( वाक च ) वाणी, वाग-इन्द्रिय ( मनः च ) मन, संकल्प विकल्प वा ऊहापोह करने वाली शक्ति, ( चक्षुः च ) चक्षु, देखने वाली इन्द्रिय, ( श्रोत्रं च ) श्रोत्र, कर्णेन्द्रिय, ( दक्ष: च ) ज्ञानेन्द्रियों का बल और ( बलं च ) कर्म इन्द्रियों का कौशल बल ( च च० ) उदान, समान, धनंजय आदि अन्य वायुएं, धारण, श्रवण, अहंकार, प्रत्यक्ष प्रमाण, सामयिक मान आदि पदार्थ भी ( यज्ञेन ) यज्ञ, आत्मसामर्थ्य, ज्ञानाभ्यास, सत्संग और उपासना से ( मे कल्पन्ताम् ) मुझे प्राप्त हों ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्देवता । अतिजगती । निषादः ॥

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    विषय

    प्राणः-बलम्

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र की समाप्ति 'स्व:'- सुख पर हुई है। उस सुख के लिए सब इन्द्रियों व शरीर का ठीक होना आवश्यक है। सुख का अर्थ ही सु+ख इन्द्रियों का उत्तम होना है, अतः इन्द्रियों की उत्तमता व स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि (प्राणश्च मे) = मेरी प्राणशक्ति (यज्ञेन) = यज्ञ से (कल्पन्ताम्) = सम्पन्न हो तथा (अपान: च मे) = मेरी अपानशक्ति भी यज्ञ द्वारा सामर्थ्ययुक्त हो। प्राण मुझे सबल बनाएगा तो अपान मेरे दोषों को दूर करेगा । २. (व्यानश्च मे) = मेरा सर्वशरीरचारी व्यानवायु यज्ञ द्वारा सम्पन्न हो और मुझे सारे नाड़ी संस्थान का स्वास्थ्य देनेवाला हो । (असुःच मे) = मेरे 'नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त व धनञ्जय' आदि विविध प्रवृत्तियों के कारणभूत मरुत् भी शक्तिसम्पन्न हों। इनके ठीक होने से मेरी सब चेष्टाएँ मपी- तुली हों। ३. (चित्तं च मे) = मेरा मानससंकल्प यज्ञ द्वारा सम्पन्न हो और उसके ठीक होने से (आधीतं च मे) = मेरा बाह्यविषयज्ञान भी ठीक हो, अर्थात् असु के ठीक होने से मेरी अन्तर व बाह्य सभी क्रियाएँ ठीक होंगी। ४. (वाक् च मे) = मेरी वाणी की शक्ति ठीक हो और मनश्च मे मेरी मानसशक्ति बिलकुल ठीक हो । वाणी यहाँ सभी कर्मेन्द्रियों की प्रतीक है। मेरी सारी कर्मेन्द्रियाँ ठीक से कार्य करें। ५. कर्मेन्द्रियों के साथ (चक्षुश्च मे श्रोत्रं च मे) = मेरी देखने तथा सुनने की शक्ति ठीक हो । मेरी सब ज्ञानेन्द्रियाँ ठीक काम करें। मैं इस जीवन में 'बहुद्रष्ट व बहुश्रुत' बन पाऊँ। ६. इस दर्शन व श्रवण से (दक्षश्च मे) = मुझे कार्य करने में दक्षता व चतुरता प्राप्त हो। मैं सब कार्यों को कुशलता से करनेवाला बनूँ (बलम् च मे) = मैं शक्तिसम्पन्न बनूँ। यह दक्षता व बल मुझे विजयी बनाएँ। ७. मेरी ये सब वस्तुएँ (यज्ञेन) = प्रभु सम्पर्क द्वारा (कल्पन्ताम्) = सामर्थ्ययुक्त हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- मैं प्राण से लेकर बल तक सब वस्तुओं को यज्ञ से सम्पन्न करनेवाला बनूँ ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी, सर्व साधनांसह (प्राण, अपान, व्यान इत्यादी तसेच चित्त, मन, वाणी, चक्षू, श्रोत्र इत्यादी) आपले प्राण वगैरे धर्माचरणात संयुक्त करावे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (उपासक कामना करीत आहे) (मे) माझा (प्राण:) जीवनमुळे हृद्स्थ वायू (च) आणि कंठदेशात राहणारा वायू तसेच (मे) माझा (अपान:) नाभीपासून खाली जाणारा (च) आणि नाभीत असणारा वायू (सुखकारी व समर्थ होवो) (मे) माझा (व्यान:) शरीरातील संधी स्थळात व्याप्त असणारा (च) आणि धनंजय वायू की जो शरीरात रुधिर प्रवाहित ठेवतो तो तसेच (मे) माझा (असू:) नाम आदी प्राणभेद (च) आणि इतर वायू (सुखकारी होवो) (मे) माझी (चित्तम्) स्मृती (च) आणि बुद्धी तसेच (मे) माझे (आधीक्रम्) चांगल्याप्रकारे निश्चित केलेले ज्ञान (च) आणि त्याद्वारे रक्षित केलेले विषय (सुखकारी व समर्थ होवोत) (मे) माझी (वाक्) वाणी (च) आणि श्रवणशक्ती तसेच (मे) माझी (मन:) संकल्प-विकल्पात्मक अंत:करणवृत्ती (च) अहंकारीवृत्ती (मला सुखकारी व्हावीत) (मे) माझे (चक्षु:) पाहण्याचे साधन, नेत्र (च) आणि प्रत्यक्ष प्रमाण (प्रत्यक्ष पाहून मिळविलेले ज्ञान) तसेच (मे) माझे (श्रोत्रम्) कर्णेंद्रिय आणि (च) प्रत्येकविषयासंबंधी वेदाचे प्रमाण (समर्थ व्हावेत) (मे) माझे (दक्ष:) चातुयर्अ (च) तत्काळ होणारे ज्ञात (प्रत्युत्यभमति) तसेच (मे) माझे बळ (च) आणि पराक्रम, हे वरील सर्व मला (यज्ञेन) ईश्वरोपासनेने आणि धर्मानुष्ठानाने (कल्पन्ताम्) (सुखकारी व्हावेत) आणि माझ्यासाठी समर्थ व्हावेत ॥2॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यानी सर्व उपायांनी आपल्या प्राण आदी पदार्थांना धर्माचरण करण्यात गुंतवावे ॥2॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May my Pran and Apan, my Vyan and my Dhananjaya, my Nag breath and other breaths, my memory and my well defined knowledge, my voice and hearing, my mind and reflections, my eye and knowledge, my ear and vedic authority, my wisdom and honour, my strength and valour, prosper through the practice of religion.

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    Meaning

    By yajna, by the Grace of God, by the blessings and goodwill of the community, and by virtue of my own discipline: my life and the breath of life, the outgoing air and systemic cleansing, the joints and suppleness of the body, my will to live and the spirit of joy, my mind and my memory, my resolution and meditation, my speech and listening, my thought and self-image, my eye and love of direct truth, my ear and search for confirmation, my expertise and my smartness, my strength and prowess, all these may grow, be favourable and auspicious for all, by yajna.

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    Translation

    May my in-breath and my out-breath, my throughbreath and my vital breath, my thought and my recollection, my speech and my mind, my vision and my hearing, my skill and my power be secured by means of sacrifice. (1)

    Notes

    Dakṣaḥ, skill. ज्ञानेंद्रियकौशलं, power of sense-organs. Balam, कर्मेंद्रिय कौशलं, strength of the organs of action, i. e. arms, legs, speech, and the reproductive organ.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(মে) আমার (প্রাণঃ) হৃদয়স্থ জীবনমূল (চ) এবং কণ্ঠ দেশে বাসকারী পবন (মে) আমার (অপানঃ) নাভি হইতে নীচে বায়ুকে জানিবে (চ) এবং নাভিতে স্থিত পবন (মে) আমার (ব্যানঃ) শরীরে সন্ধিগুলিতে ব্যাপ্ত (চ) এবং ধনঞ্জয় যাহা শরীরের রুধিরাদিকে বৃদ্ধি করে সেই পবন (মে) আমার (অসুঃ) নাগাদি প্রাণের ভেদ (চ) তথা অন্য পবন (মে) আমার (চিত্তম্) স্মৃতি (চ) এবং বুদ্ধি (মে) আমার (আধীতম্) উত্তম প্রকার কৃত নিশ্চিত জ্ঞান (চ) এবং রক্ষাকৃত বিষয় (মে) আমার (বাক্) বাণী (চ) এবং শ্রবণ করা (মে) আমার (মনঃ) সংকল্প বিকল্প রূপ অন্তঃকরণের বৃত্তি (চ) অহঙ্কারবৃত্তি (মে) আমার (চক্ষুঃ) যদ্দ্বারা আমি দেখি সেই নেত্র (চ) এবং প্রত্যক্ষ প্রমাণ (মে) আমার (শ্রোত্রম্) যদ্দ্বারা আমি শুনি সেই কর্ণ (চ) এবং প্রত্যেক বিষয়ের উপর বেদের প্রমাণ (মে) আমার (দক্ষঃ) চাতুর্য্য (চ) এবং তৎকাল আভাস হওয়া তথা (মে) আমার (বলম্) বল (চ) এবং পরাক্রম এই সব (য়জ্ঞেন) কর্মের অনুষ্ঠান দ্বারা (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক ॥ ২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্যগণ সাধনগুলির সহিত নিজ প্রাণাদি পদার্থকে ধর্মের আচরণ করিতে সংযুক্ত করিবে ॥ ২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    প্রা॒ণশ্চ॑ মেऽপা॒নশ্চ॑ মে ব্যা॒নশ্চ॒ মেऽসু॑শ্চ মে চি॒ত্তং চ॑ ম॒ऽআধী॑তং চ মে॒ বাক্ চ॑ মে॒ মন॑শ্চ মে॒ চক্ষু॑শ্চ মে॒ শ্রোত্রং॑ চ মে॒ দক্ষ॑শ্চ মে॒ বলং॑ চ মে য়॒জ্ঞেন॑ কল্পন্তাম্ ॥ ২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    প্রাণশ্চেত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । প্রজাপতির্দেবতা । ভুরিগতিজগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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