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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 15
    ऋषिः - प्रस्कण्व ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः
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    श्रु॒धि श्रु॑त्कर्ण॒ वह्नि॑भिर्दे॒वैर॑ग्ने स॒याव॑भिः। आ सी॑दन्तु ब॒र्हिषि॑ मि॒त्रोऽअ॑र्य्य॒मा प्रा॑त॒र्यावा॑णोऽअध्व॒रम्॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रु॒धि। श्रु॒त्क॒र्णेति॑ श्रुत्ऽकर्ण। वह्नि॑भि॒रिति॒ वह्नि॑ऽभिः। दे॒वैः। अ॒ग्ने॒। स॒याव॑भि॒रिति॑ स॒याव॑ऽभिः ॥ आ। सी॒द॒न्तु॒। ब॒र्हिषि॑। मि॒त्रः। अ॒र्य्य॒मा। प्रा॒त॒र्यावा॑णः। प्रा॒त॒र्यावा॑न॒ इति॑ प्रातः॒ऽयावा॑नः। अ॒ध्व॒रम् ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवैरग्ने सयावभिः । आसीदन्तु बर्हिषि मित्रोऽअर्यमा प्रातर्यावाणोऽअध्वरम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    श्रुधि। श्रुत्कर्णेति श्रुत्ऽकर्ण। वह्निभिरिति वह्निऽभिः। देवैः। अग्ने। सयावभिरिति सयावऽभिः॥ आ। सीदन्तु। बर्हिषि। मित्रः। अर्य्यमा। प्रातर्यावाणः। प्रातर्यावान इति प्रातःऽयावानः। अध्वरम्॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 15
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    पदार्थ -
    हे (श्रुत्कर्ण) अर्थियों के वचनों को सुननेहारे (अग्ने) अग्नि के तुल्य वर्त्तमान तेजस्वी विद्वन्! वा राजन्! आप (सयावभिः) जो साथ चलते उन (वह्निभिः) कार्यों का निर्वाह करनेहारे (देवैः) विद्वानों के साथ (अध्वरम्) रक्षा के योग्य राज्य के व्यवहार को (श्रुधि) सुनिये तथा (प्रातर्यावाणः) प्रातःकाल राजकार्यों को प्राप्त करनेहारे (मित्रः) पक्षपातरहित सबका मित्र और (अर्यमा) वैश्य या अपने अधिष्ठाताओं को यथार्थ माननेवाला ये सब (बर्हिषि) अन्तरिक्ष के तुल्य सभा में (आ, सीदन्तु) अच्छे प्रकार बैठें॥१५॥

    भावार्थ - सभापति राजा को चाहिये कि अच्छे परीक्षित मन्त्रियों को स्वीकार कर उनके साथ सभा में बैठ विवाद करनेवालों के वचन सुन के उन पर विचार कर यथार्थ न्याय करे॥१५॥

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