यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 61
ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः
देवता - इन्द्राग्नी देवते
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
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उ॒ग्रा वि॑घ॒निना॒ मृध॑ऽइन्द्रा॒ग्नी ह॑वामहे। ता नो॑ मृडातऽई॒दृशे॑॥६१॥
स्वर सहित पद पाठउ॒ग्रा। विघ॒निनेति॑ विऽघ॒निना॑। मृधः॑। इ॒न्द्रा॒ग्नीऽइती॑न्द्रा॒ग्नी। ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ ता। नः॒। मृ॒डा॒तः॒। ई॒दृशे॑ ॥६१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उग्रा विघनिना मृधऽइन्द्राग्नी हवामहे । ता नो मृडात ईदृशे ॥
स्वर रहित पद पाठ
उग्रा। विघनिनेति विऽघनिना। मृधः। इन्द्राग्नीऽइतीन्द्राग्नी। हवामहे॥ ता। नः। मृडातः। ईदृशे॥६१॥
विषय - अब सभा-सेनापति क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! हम जिन (उग्रा) अधिक बली तेजस्वी स्वभाववाले (मृधः) और हिंसकों को (विघनिना) विशेष कर मारनेहारे (इन्द्राग्नी) सभा-सेनापति को (हवामहे) बुलाते हैं (ता) वे (ईदृशे) इस प्रकार के संग्रामादि व्यवहार में (नः) हम लोगों को (मृडातः) सुखी करते हैं॥६१॥
भावार्थ - जो सभा और सेना के अध्यक्ष पक्षपात को छोड़ बल को बढ़ा के शत्रुओं को जीतते हैं, वे सबको सुख देनेवाले होते हैं॥६१॥
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