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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 27
    ऋषिः - अगस्त्य ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    कुत॒स्त्वमि॑न्द्र॒ माहि॑नः॒ सन्नेको॑ यासि सत्पते॒ किं त॑ऽइ॒त्था।सं पृ॑च्छसे समरा॒णः शु॑भा॒नैर्वो॒चेस्तन्नो॑ हरिवो॒ यत्ते॑ऽअ॒स्मे।म॒हाँ२ऽ इन्द्रो॒ यऽओज॑सा।क॒दा च॒न स्त॒रीर॑सि॒। क॒दा च॒न प्रयु॑च्छसि॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कुतः॑। त्वम्। इ॒न्द्र॒। माहि॑नः। सन्। एकः॑। या॒सि॒। स॒त्प॒त॒ इति॑ सत्ऽपते। किम्। ते॒। इ॒त्था ॥ सम्। पृ॒च्छ॒से॒। स॒म॒रा॒ण इति॑ सम्ऽअरा॒णः। शु॒भा॒नैः। वोचेः। तत्। नः॒। ह॒रि॒व॒ इति॑ हरिऽवः। यत्। ते॒। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे ॥२७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुतस्त्वमिन्द्र माहिनः सन्नेको यासि सत्पते किन्तऽइत्था । सम्पृच्छसे समराणः शुभानैर्वोचेस्तन्नो हरिवो यत्तेऽअस्मे । महाँऽइन्द्रो यऽओजसा कदा चन स्तरीरसि कदा चन प्रयुच्छसि॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कुतः। त्वम्। इन्द्र। माहिनः। सन्। एकः। यासि। सत्पत इति सत्ऽपते। किम्। ते। इत्था॥ सम्। पृच्छसे। समराण इति सम्ऽअराणः। शुभानैः। वोचेः। तत्। नः। हरिव इति हरिऽवः। यत्। ते। अस्मेऽइत्यस्मे॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 27
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    पदार्थ -
    हे (सत्पते) श्रेष्ठ सत्य व्यवहार वा श्रेष्ठ पुरुषों के रक्षक (इन्द्र) सभापते! (माहिनः) महत्त्वयुक्त सत्कार को प्राप्त (त्वम्) आप (एकः) असहायी (सन्) होते हुए (कुतः) किस कारण (यासि) प्राप्त होते वा विचरते हो? (किम् ते) (इत्था) इस प्रकार करने में आपका क्या प्रयोजन है? हे (हरिवः) प्रशंसित मनोहारी घोड़ोंवाले राजन्! (यत्) जिस कारण (अस्मे) हम लोग (ते) आपके हैं, इनसे (समराणः) सम्यक् चलते हुए आप (नः) हमको (सम्, पृच्छसे) पूछिये और (शुभानैः) मङ्गलमय वचनों के साथ (तत्) उस एकाकी रहने के कारण को (वोचेः) कहिये॥२७॥

    भावार्थ - राज-प्रजा पुरुषों को चाहिये कि सभाध्यक्ष राजा से ऐसा कहें कि हे सभापते! आपको विना सहाय के कुछ राजकार्य न करना चाहिये, किन्तु आप को उचित है कि सज्जनों की रक्षा और दुष्टों के ताड़न में अस्मदादि के सहाययुक्त सदैव रहैं, शुभाचरण से युक्त, अस्मदादि शिष्टों की सम्मतिपूर्वक कोमल वचनों से सब प्रजाओं को शिक्षा करें॥२७॥

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