Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 96
    ऋषिः - नृमेध ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृद् बृहती स्वरः - मध्यमः
    7

    प्र व॒ऽइन्द्रा॑य बृह॒ते मरु॑तो॒ ब्रह्मा॑र्चत।वृ॒त्रꣳ ह॑नति वृत्र॒हा श॒तक्र॑तु॒र्वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा॥९६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र। वः॒। इन्द्रा॑य। बृ॒ह॒ते। मरु॑तः। ब्रह्म॑। अ॒र्च॒त॒ ॥ वृ॒त्रम्। ह॒न॒ति॒। वृ॒त्र॒हेति॑ वृत्र॒ऽहा। श॒तक्र॑तु॒रिति॑ श॒तऽक्र॑तुः। वज्रे॑ण। श॒तप॑र्व॒णेति॑ श॒तऽप॑र्वणा ॥९६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वऽइन्द्राय बृहते मरुतो ब्रह्मार्चत । वृत्रँ हनति वृत्रहा शतक्रतुर्वज्रेण शतपर्वणा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। वः। इन्द्राय। बृहते। मरुतः। ब्रह्म। अर्चत॥ वृत्रम्। हनति। वृत्रहेति वृत्रऽहा। शतक्रतुरिति शतऽक्रतुः। वज्रेण। शतपर्वणेति शतऽपर्वणा॥९६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 96
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    हे (मरुतः) मनुष्यो! जो (शतक्रतुः) असंख्य प्रकार की बुद्धि वा कर्मों वाला सेनापति (शतपर्वणा) जिससे असंख्य जीवों का पालन हो ऐसे (वज्रेण) शस्त्र-अस्त्र से (वृत्रहा) जैसे मेघहन्ता सूर्य (वृत्रम्) मेघ को वैसे (बृहते) बड़े (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिये शत्रुओं को (हनति) मारता और (वः) तुम्हारे लिये (ब्रह्म) धन वा अन्न को प्राप्त करता है, उसका तुम लोग (प्र, अर्चत) सत्कार करो॥९६॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जो लोग मेघ को सूर्य के तुल्य शत्रुओं को मार के तुम्हारे लिये ऐश्वर्य की उन्नति करते हैं, उनका सत्कार तुम करो। सदा कृतज्ञ हो के कृतघ्नता को छोड़ के प्राज्ञ हुए महान् ऐश्वर्य को प्राप्त होओ॥९६॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top