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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 11
    ऋषिः - पराशर ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आ यदि॒षे नृ॒पतिं॒ तेज॒ऽआन॒ट् शुचि॒ रेतो॒ निषि॑क्तं॒ द्यौर॒भीके॑।अ॒ग्निः शर्द्ध॑मनव॒द्यं युवा॑नꣳस्वा॒ध्यं जनयत्सू॒दय॑च्च॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। यत्। इ॒षे। नृ॒पति॒मिति॑ नृ॒ऽपति॑म्। तेजः॑। आन॑ट्। शुचि॑। रेतः॑। निषि॑क्तम्। निषि॑क्त॒मिति॒ निऽसि॑क्तम्। द्यौः। अ॒भीके॑ ॥ अ॒ग्निः। शर्द्ध॑म्। अ॒न॒व॒द्यम्। युवा॑नम्। स्वा॒ध्य᳖मिति॑। सुऽआ॒ध्य᳖म्। ज॒न॒य॒त्। सू॒दय॑त्। च॒ ॥११ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यदिषे नृपतिन्तेज आनट्शुचि रेतो निषिक्तन्द्यौरभीके । अग्निः शर्धमनवद्यँयुवानँ स्वाध्यञ्जनयत्सूदयच्च ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। यत्। इषे। नृपतिमिति नृऽपतिम्। तेजः। आनट्। शुचि। रेतः। निषिक्तम्। निषिक्तमिति निऽसिक्तम्। द्यौः। अभीके॥ अग्निः। शर्द्धम्। अनवद्यम्। युवानम्। स्वाध्यमिति। सुऽआध्यम्। जनयत्। सूदयत्। च॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 11
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! (यत्) जब (इषे) वर्षा के लिये (निषिक्तम्) अग्नि में घृतादि के पड़ने से निरन्तर बढ़ा हुआ (शुचि) पवित्र (तेजः) यज्ञ से उठा तेज (नृपतिम्) जैसे राजा का तेज व्याप्त हो वैसे सूर्य को (आ, आनट्) अच्छे प्रकार व्याप्त होता है, तब (अग्निः) सूर्यरूप अग्नि (शर्द्धम्) बलहेतु (अनवद्यम्) निर्दोष (युवानम्) ज्वानी को करनेहारे (स्वाध्यम्) जिनका सब चिन्तन करते (रेतः) ऐसे पराक्रमकारी वृष्टि जल को (द्यौः) आकाश के (अभीके) निकट (जनयत्) उत्पन्न करता (च) और (सूदयत्) वर्षा करता है॥११॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि में होम किया द्रव्य तेज के साथ ही सूर्य को प्राप्त होता और सूर्य जलादि को आकर्षण कर वर्षा करके सबकी रक्षा करता है, वैसे राजा प्रजाओं से करों को ले, दुर्भिक्षकाल में फिर दे, श्रेष्ठों को सम्यक् पालन और दुष्टों को सम्यक् ताड़ना देके प्रगल्भता और बल को प्राप्त होता है॥११॥

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